________________
६० ::
'सीताजी का ब्रह्मचर्य'
मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमध्ये यदि मम पति भावो राघवादन्यपुंसि । तदिए दह शरीरं पापकं पावकेदम् सुकृत विकृत भाजां येन लोकैक साक्षी ॥ ६० ॥
:: शेष विद्या प्रकाश
अर्थ - अग्नि परीक्षा के समय सीताजी अग्निदेव से हाथ जोड़कर कहती है, हे अग्निदेव ! यदि मेरे शरीर में मेरे वचन में, और मेरे मन में भी, जागृत समय हो या स्वप्न में भी, राघव अर्थात् मेरे पतिदेव श्री रामचन्द्रजी को छोड़कर दूसरे पुरुष में यदि पति भाव आया हो, तो इस पापी शरीर को जला कर राख कर देना, क्योंकि मेरे पाप और पुण्य के साक्षी इस समय आपको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है । इतिहास कहता हैं कि सीताजी ने अग्निकुंड में पापात कर दिया और शील ( ब्रह्मचर्य ) के प्रभाव से लाखों करोड़ों देव-दानव, विद्याधर, असुर, किन्नर और राजा महाराजाओं के प्रत्यक्ष वह अग्निकुण्ड निर्मल जल का कुंड बन गया । अयोध्या की जनता खुश खुश हो गई, लव कुश और लक्ष्मण का हृदय कमल विकसित हुआ । हनुमान, सुग्रीव और विभीषण का मन-मयूर सम्पूर्ण कलाओं से नाच उठा और रामचन्द्रजी प्राश्चर्य हर्ष और शोक से युक्त और
·
शरमिंदे बन गये ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com