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:: शेष विद्या प्रकाश
'परस्त्री में फंसे हुए मुंजराजा की दशा'
रे ! रे ! यन्त्रक मा रोदिः कं कं न भ्रमयत्य सौ | कटाक्षाक्षेपमात्रेण कराक्रुष्टस्य का कथा ||६२||
अर्थ- बंदीवान मुञ्ज राजा एक कुएं के पास खड़े हैं । वहाँ रहेंट से पानी खींचा जा रहा है उसमें से 'चूँ चूँ" की आवाज ना रही है। तब मुञ्जराजा कह रहे हैं कि हे यन्त्रक ! ( पेंचका ) मत रो ! मत रो ! शान्त बन ! अरे भला अपनी टेढी ( वक्र ) आंखों से हो उच्चासन पर विराजमान कितने ही सत्ताधीशों को श्रौर श्रीमंतों को इस स्त्री जाति ने भमा लिया है - अर्थात् प्रपने चरणों के दास बना लिया है। तो भला, तुझे तो हाथों से भमा रही है, हाथों से नचवा रही है, अब रोना बेकार है अर्थात् जो भी इन्सान परस्त्रियों के चक्कर में प्रायगा उसकी दशा ऐसी ही होगी जैसी मेरी हुई है और तेरी हुई है || ६२ ||
जहां जेहने नहीं पारखे तहां तेहनु नहीं काम | धोबी बिचारो शुकरे ? जे छे दिगम्बरों नुं गाम ||
गेहूँ कहे मैं बड़ा, मेरे ऊपर मेरी खबर जब मिले, के बाई रे अत्रे
जब कहे मैं बड़ा, मेरे ऊपर मेरी खबर जब मिले, के हारी आवे
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चीरा |
बीरा ॥
कूका ।
भूखा ॥
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