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शेष विद्या प्रकाश ::
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__'मानव धर्म' वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्त यदनृतं, वरं क्लैब्यं पुसो न च परकलत्राभिगमनम् । वरं प्राणत्यागो न च पिशुनवाक्येष्वभिरूचिः वरं भिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम् ॥२२॥
अर्थ- खूब समझ लेना चाहिए कि किसी भी संप्रदाय में या किसी के पक्ष में रहना हगिज धर्म नहीं है, या अमुक झंडा उठाकर फिरना या अमुक प्रकार के रंगे हुए वस्त्रों का परिधान करना या जुदी-जूदी रीत से तिलक लगाना या जुदे जुदे द्रव्य की माला हाथ में घुमाते रहना, ये धर्म नहीं है क्योंकि धूर्त, प्रपंची या पेट भरा आदमी भी यह सब कर सकता है। परन्तु धर्म का सीधा सादा अर्थ यही है कि जिससे अर्थात् जिन क्रियाओं से इन्सानियत, मानवता, मनुष्य प्रेम का विकास होवे और वह इन्सान दैवी संपत्ति का मालिक बने । ऊपर का श्लोक अपने को यही समझाता है कि(१) धर्म्यभाषा बोलना नहीं आता हो तो मौन धारण करना
सर्व श्रेष्ठ है, परन्तु ईर्ष्यायुक्त, हिंसक, गर्विष्ठ और असभ्य
वचन बोलना परघातक तो है ही परन्तु स्वघातक भी है। (२) नपुंसक बनना फायदेकारक है परन्तु परस्त्री को ताकना,
उसके साथ गंदा व्यवहार रखना, यह व्यक्ति का समाज का नुकसान कराने वाला दुर्गुण है, दुर्व्यसन है ।
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