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:: शेष विद्या प्रकाश 'कलम का हितोपदेश' साधुभ्यः साधुदानं रिपुजन सुहृदां चोपकारं कुरुत्वं । सौजन्यं बन्धुवर्गे निजहितमुचितं स्वामिकार्य यथार्थम् । श्रोत्रेते तथ्यमेतत् कथयति सततं लेखिनी भाग्यशालिन् । नोचेन्नष्टेऽधिकारे मम मुख सदृशं तावकास्यं भवेद्धि ॥२७॥
अर्थ-कान के ऊपर बैठो हुई कलम अपने मालिक को प्रतिक्षण सत्य (धर्म्य) उपदेश देती हुई कहती है किः
१. न्याय नीति से धन कमाकर तू साधु पुरुषों को साधु दान दे, और उनके ज्ञान दर्शन चारित्र की वृद्धि कर ।
२. अपने दुश्मनों का और मित्रों का भला कर-उपकार कर, याद रखना कि मित्रों का उपकार तो प्रत्येक मानव करता ही है, परन्तु दुश्मनों को, दुश्मनों के बच्चों को दूध रोटी देकर उनका भला चाहना यही मानव धर्म है, और इसी को मानवता कहते हैं।
३. दुःख से पीड़ित बन्धु वर्ग के साथ सज्जनता का व्यवहार करना। समझना होगा कि जीभ से, कलम से और श्रीमंताई तथा सत्ता के नशे में आकर भी किसी के साथ दुर्जनता का व्यवहार करना राक्षसीय गुण है।
४. शरीर को श्रृङ्गारने के अतिरिक्त उसी शरीर रूपी भाडे के मकान में जो प्रात्मा रूपी मालिक बैठा है, उसको समझना और उसका भला हो वैसी शुद्ध और शुभ प्रवृति करना ।
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