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शेष विद्या प्रकाश ::
'कृपणता का तिरस्कार'
कृपणः स्ववधुसङ्ग न करोति भयादिति । भविता यदि मे पुत्रः समे वित्तं हरेदिति ॥५१।।
अर्थ-कृपण की कृपणता का आखिरी नतीजा बतलाते हुए प्राचार्य भगवंतों ने कहा कि "यदि मेरे पुत्र होंगे तो मेरे धन का बटवारा हो जायगा" इसी डर के मारे, वह अपनी स्त्री के संग से भी डरता हुमा परदेश में जीवन बिताता है। समझना सरल होगा कि अपनी स्त्री को एक स्थान में रखकर दूसरे स्थान में या परदेश में रात्रिय बितानेवाले पुरुष के जीवन में बहुत से दुर्गुणों के साथ व्यभिचार (कुकर्म) दोष भी होता है। अतः उसको परस्त्रीगामी या वेश्यागामी बनने से कौन रोक सकता है ? ऐसी अवस्था में उसके कुटुम्ब के पुत्रों में या स्त्रियों में फैलता हुआ गुप्त दुराचार कैसे रोका जायगा ? परिणाम यह रहा कि वह कंजूस अपना अपनी जाति का, अपनो स्त्री का और अपने संतानों का अवश्यमेव द्रोही है ।।५१।।
प्रौढ़ प्रताप भारी देते सदा थे उपदेश भारी। प्राचार्य चूडामणि धर्मसूरि श्री को सदा वन्दन भूरि मेरी॥ प्रखर वक्ता, निडर लेखक, शासन दीपक रमणीय है।
सौम्यमुद्रा गुरुराज श्रीविद्या विजयजी वन्दनीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com