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:: शेष विद्या प्रकाश
'दान नहीं देने का फल'
भिक्षुका नैव याचन्ते बोधयन्ति गृहे गृहे । दीयतां दीयतां किञ्चिद्दातुः फलमीदृशम् ॥ ५२ ॥
।
अर्थ-- कंजूस श्रीमंतों के घर पर भिखारियों का टोला आता है । बड़ी-बड़ी हवेलियें और घर के ठाठ - माठ को देखकर आशा के मारे वे भिखारी कहते हैं कि - सेठ साहब हमको कुछ दो, सेठानी बाई हमको कुछ दो, हम भूखे हैं, हमारे बच्चे भूखे है, हम नंगे हैं, हमारे बच्चे नंगे हैं, अतः हमको दो ।
परन्तु हृदय का कृपण वह सेठ उन भिखारियों को गालियें देता है, और अपने नौकरों से धक्का देकर निकलवात है, उनके बच्चे गिर जाते हैं, रोते हैं । उसी समय एक कवि उधर से जा रहा होता है, इस करुण दृश्य को देखकर सेठ साहब से कहता है - हे श्रीमंतों ! हे सत्ताधारियों ! आप सुन लीजिये कि ये भिखारी लम्बे हाथ करके आपसे भीख नहीं मांग रहे हैं, परन्तु आपको उपदेश देते कह रहे हैं कि - 'हमको कछ दो' गत भव में हमारे पास खूब धन था परन्तु हमने भूखे को रोटी नहीं दी, प्यासे को पानी नहीं पिलाया और ठण्डी में कांपते हुए को कपड़ा नहीं दिया अतः इस भव में हम भिखारी बने हैं। इसलिये हम आपको लम्बे-लम्बे हाथ करके कह रहे हैं कि हमारे उदाहरण को प्रतिक्षण ध्यान में रखकर 'हम को कुछ दो' और ग्रापकी श्रीमंताई में हमारा भी कुछ भाग रहने दो,
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