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:: शेष विद्या प्रकाश
लज्जा तथा खानदानी धर्म मर्यादा, वगैरह आत्मिक गुणों का नाश होता है, अतः इन्द्रियों में संयम, मन में सदाचार और जीवन को उच्चत्तम बनाने में ही निर्भयता प्राप्त होती है ।
जानवरों के मैथुन धर्म में अविवेक होता है अत. उनकी सन्तान भी जानवर होती है। यदि मनुष्य भी मैथुन धर्म में अविवेक लाएगा तो उस मनुष्य की संतान भी रावण, दुर्योधन, कंस और शूर्पणखा जैसी राक्षसीय गुण वाली ही होगी, यह निश्चित बात है। इसी कारण से अनुभवियों का कहना है कि धर्म संज्ञा ही मानवता का सर्व श्रेष्ठ सार है, तत्त्व है ॥२५।।
'मानवता होन का फल' हस्तौदान विवर्जिती, श्रुतिपुटौ, सारश्रुतिद्रोहिणी, नेत्रे साधु विलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थ गतौ । अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं, गर्वेण तुङ्ग शिरो, रे ! रे ! जम्बुक मुश्च मुश्च सहसा नीचस्य निन्यं वपुः ॥२५॥
अर्थ-श्मशान में पड़े हुए एक मुर्दे (शव) को खाने के लिये आये हुए सियालों को एक योगिराज कह रहे हैं कि हे ! सियाल ! इस शरीर को (शरीर के मांस को) खाना छोड़ दे क्योंकि (गेट ऑफ दो मोक्ष) मोक्ष प्राप्ति के योग्य ऐसे पवित्रतम मनुष्य अवतार के मिलने पर भी इसने अपने शरीर को इस प्रकार निन्दनीय बनाया है।
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