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शेष विद्या प्रकाश ::
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लक्ष्मी का सदुपयोग श्रीवृद्धिर्नखवत् छेद्या, नैव धार्या कदाचन । प्रमादात् स्खलिते क्वापि, समूला सा विनश्यति ॥३।।
अर्थ-जिस प्रकार बढ़ते हुए नाखूनों को काट देना श्रेयस्कर है, उसी प्रकार बढ़ती हुई लक्ष्मी देवी को भी परिग्रह नियंत्रण के द्वारा कम करने की भावना रखनी अच्छी है। अर्थात दान, पुण्य जैसे पवित्र कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग कर लेना चाहिए । अन्यथा लक्ष्मी के आने पर और बढ़ने पर यदि कुछ प्रमाद हो गया, तात्पर्य यह है कि लक्ष्मी देवी के चार पुत्रों में से बड़े पुत्र धर्मराज का अपमान यदि हो गया तो निश्चित रूप से समझना होगा कि पिछले तीन पुत्र अग्निदेव, राजा और चोर आपकी लक्ष्मी को मूल से ही नाश कर देंगे ॥३५।।
लक्ष्म्या संजायते भानुः सरस्वत्यापि जायते ।
मनुष्यों की प्रतिभा लक्ष्मी से और सरस्वती से उत्पन्न होती है और बढ़ती है।
आदमी के मुह में जो कुछ जाता है, उससे कोई भी इन्सान नापाक नहीं होता है. पर जो कुछ आदमी के मुंह से निकलता है वह आदमी को नापाक कर सकता है। जो बातें श्रादमी के मुंह से निकलती है, वह दिल से निकलती है । उसमें यदि हिंसा झूठ, व्यभिचार, बदचलनी, चोरी. और भगवान की निंदा भरी पड़ी है तो जबान से यही चीजें निकलेगी जिससे पूरा संसार नापाक हो सकता है (इन्जील ग्रन्थ ।)
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