________________
४२ ::
:: शेष विद्या प्रकाश
'आशा तृष्णा का फल
आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । आशादासी येषां तेषां दासाय ते लोकः ॥४२॥
अर्थ-मन के और इन्द्रियों के भोगों की प्राशा में जीवन यापन करने वाला मानव सब जीवों का दास है । जैसे:
स्पर्शेन्द्रिय के भोग में स्त्री की दासता (गुलामी) स्वीकारना अनिवार्य है।
जिहन्द्रिय के भोग लालसा में भी इन्सान कितना गुलाम बन जाता है ? यह बात सभी के अनुभव में है।
इसी प्रकार कान, नाक और प्रांख इन्द्रियों के भोग में गुलामी निश्चित है।
परन्तु घड़ी आधघड़ी साधुसंतों के चरणों में बैठकर जिन्होंने अपनी आत्मा को समझा है और समझकर पाशा तृष्णा को जिन्होंने अपनी दासी बना ली है, पूरा संसार उसका दास है ॥४२॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com