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:: शेष विद्या प्रकाश
'गुणी पुत्र' वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तयो हन्ति न च तारागणोऽपि च ।।४७॥
अर्थ-संख्याबंद पुत्रों के मां बाप बनने की अपेक्षा एक ही पुत्र जो भक्त हो, दाता हो, शूरवीर हो उसके मां बाप बनना, अपने, अपनी समाज के और अपने देश के लिये गौरव लेने जैसा है । दर्जन दो दर्जन पुत्र के मां बाप बन भी गये तो भी उसमें क्या बहादुरी है ? जिस पुत्र से देश का, समाज का और कुटुम्ब का भला न होने पाया। जैसे आकाश में करोड़ों की संख्या में ताराओं का वर्ग है परन्तु किसी के लिये भी वह करोड़ संख्या क्या काम की है, परन्तु एक ही चन्द्र जिसके उदय होते ही पूरा विश्व प्रकाशित हो जाता है, अवश्यमेव प्रशंसनीय और प्रादरणीय भी है ॥४७॥
अनन्तानुबंधी कषायों के क्षयोपशम के बिना, मिथ्यात्व मोह का क्षयोपशम, नितान्त असम्भव है ऐसी परिस्थिति में सम्यक्त्व तो हजारों कोस दूर है। साधक ! सर्वप्रथम कषायों के दूरीकरण का मार्ग स्वीकार कर लें।
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