________________
३४ ::
:: शेष विद्या प्रकाश 'सुख दु.ख में समदृष्टि बनना' संसारवासे वसतां जनानां
सुखं च दुखं च सदा सहस्तः । न सन्ति सर्वे दिवसाः सुखस्य
दुःखप्रसङ्गोऽपि कदापि सहयः ॥३२॥
अर्थ-संसार की चार गतियों में परिभ्रमण करते हुए जीवों को सुख दुःख का अनुभव होता ही रहता है, सबके सब घड़ी, पल, दिवस, पक्ष, मास और वर्ष सुख में पूर्ण होने वाले नहीं है, और न किसी के हुए हैं। उसी प्रकार दुख के दिवस भी किसी के एक सरीखे नहीं रहे हैं, अतः सुख में फुलाना और धर्म कर्म और परमात्मा को भूल जाना, तथा दुख में रोना पीटना और घबराते हुए रहना अच्छा नहीं है "इदमपि गमिष्याते" ये भी दिन चले जायेंगे, अर्थात् आये हुए दिन एक दिन अवश्यमेव जाने वाले हैं अत: समदर्शी बनना हितप्रद है ॥३२॥
पढमंणाणं तो दया।
अकल्याणकारी पाप मार्ग से जीवन को बचाने के लिये प्रथम ज्ञान की आवश्यकता है ज्ञानवान तो दयालु होता ही है।
स्पष्ट वक्ता सुखी भवेत् । अहिंसक और मनोज्ञ भाषा में स्पष्ट वक्ता सुखी बनता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com