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:: शेष विद्या प्रकाश 'आशा तृष्णा का सामर्थ्य अङ्ग गलितं पलितं मुण्डं ।
____दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहित्वा दण्डं
तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥३०॥ अर्थ-पांच इन्द्रियों के २३ विषयों को भुगतने में जिसका शरीर वृद्ध हुआ है, फिर भी असंस्कारी मन अर्थात् ज्ञान और वैराग्य की लगाम से रहित मन यही सोचता रहता है कि
__ चमकता हुआ मेरा शरीर अब गल गया है। चमकते हुए काले बाल अब रूई (कपास) के माफिक सफेद हो गये हैं ।
बिना दांत का मुह अब खोखला हो गया है। फिर भी आशा और तृष्णा देवी को मैं पकड़ बैठा हूं। वह इस प्रकारशरीर शिथिल होने पर भी शक्ति और पुष्टिदायक 'रसायन' सेवन का मन होता है, परन्तु तपश्चर्या का मार्ग अच्छा नहीं लगता है । दांत पड़ने पर भी सुपारी और पान खाने को मन ललचाता है, परन्तु अब भी त्याग धर्म में रुचि नहीं होती है कि पूरी जिन्दगी खाने में बिताई है, तो भी खाने की वस्तुएं समाप्त नहीं हुई, वरन मेरे दांत ही नष्ट हो गये हैं, अतः खाने की लालसा ही छोड़ दू ।
वृद्धावस्था प्राई परन्तु धर्मस्थानों में जाने का भाव नहीं होता है इस प्रकार प्राशाओं की मायाजाल में जीवन पूरा किया है ॥३०॥
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