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:: शेष विद्या प्रकाश
जवानी चली गई है परन्तु मेरा मन अभी भी उनके भोगों की लालसा में तड़फ रहा है ।
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२. जीभ इन्द्रिय के वश में आकर मैंने खाद्य प्रखाद्य का, तथा कब और कितना खाना उसका विचार तक नहीं किया । मेरे दांत गिर गये, गिरे जा रहे हैं तथापि जीभ के ऊपर मैं संयम नहीं कर सकता ।
३. अलमस्त मेरा शरीर था । शरीरमद में आकर के मैंने कितने ही अत्याचार किये, अनाचार किये अब लाकड़ी का सहारा लिया, परन्तु परमात्मा का सहारा लेने का भाव अभी भी नहीं आया ।
४. प्रांख इन्द्रिय का तेज घट गया है, फिर भी परमात्मा के दर्शन की चाहना नहीं होती है और युवतियों के रंगबिरंगी वस्त्रों का देखना पसन्द पड़ता है ।
५. कान युगलों ने सुनना छोड़ दिया है। तथापि निर्लज्ज बना हुआ मेरा मन अश्व के माफिक संसार के भोगों में दौड़ रहा है ।
हाय ! मेरी क्या गति होगी ? परमात्मा के घर जाकर मैं क्या जवाब दूंगा ||२८||
परोपकार : पुण्याय पापाय परपीडनम् ।
- पुराण
परहित सरिस धर्म नहीं भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।
- तुलसीदास
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