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शेष विद्या प्रकाश ::
'मानवता श्रेष्ठ कैसे बन सकेगी'
आहार-निद्रा-भय-मैथुनञ्च,
___सामान्यमेतत् पशुभिःनराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो,
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥२५॥ अर्थ--आहार-निद्रा-भय-मैथुन ये चार कर्म-संज्ञा जीव मात्र के समान होती है। केवल इसीलिए मनुष्य अवतार श्रेष्ठ नहीं है परन्तु चारों संज्ञाओं में यदि वह विचारक मनुष्य धर्म संज्ञा को मिला दें तो वह कुदरत का आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ चराचर संसार का कल्याण कर सकता है ।
धर्म्य आहार, धर्म्यपान के साथ विवेकपूर्ण हित, मित और पथ्य भोजन विधि से ही जीवन सार्थक बनता है।
सब स्थानों में और सब समयों में निद्रा लेने की नहीं होती है । मर्यादित निद्रा ही इन्सान के मन, बुद्धि और शरीर को स्वस्थता तथा स्फूर्ति देने वाली होती है और मर्यादातीत निद्रा मानसिक और आत्मिक रोग है, ऐसे रोग का प्रवेश सुलभ है, और साथ साथ जीवन और जीवन की शक्तिऐं बर्बाद हो जाती हैं।
अधर्म्य व्यवहार, व्यापार, भाषण, खानपान से भयसंज्ञा उत्पन्न होती है और बढती है, जिसके बढने से विनय, विवेक, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com