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:: शेष विद्या प्रकाश
'धर्म हो रक्षक है' बने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये
महार्णवे पर्वतमस्तके वा। सुप्तं प्रमचं विषमे स्थितं वा
रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥२१॥ अर्थ- जिस इन्सान ने धर्मराजा की बैक में पुण्यधन जमा करके रखा है, और इस भव में फिर से उस पुण्यधन को बढ़ाता रहता है, वह भाग्यशाली चाहे जङ्गल में रहे, रण में फिरे, शत्रु, जल और अग्नि के बीच फंस जाय, समुद्र में गिर जाय, पर्वत के शिखर पर भूला पड़ जाय, प्रमादवश यत्र तत्र पड़ा हो, या विषम स्थान में पड़ा हो तो उसका रक्षण धर्मराजा प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से करता ही है । गीता वचन भी यही है कि "धर्मो रक्षति रक्षितः " अर्थात् जो भाग्यशाली दुःख दारिद्रय और विपत्ति के समय में भी अपने सत्य, सदाचार और प्रेमधर्म की रक्षा करेगा उसका मब प्रकार से भला होगा ।।२१।।
हे पूर्णिमा के चन्द्रमा। अपनी चांदनी से आज ही पालस्य लाये बिना इस संसार को उज्जवल कर देना अन्यथा निर्दय विधाता चिरकाल तक किसी को मालदार नहीं रहने देता है।
___-राजा भोज ऐ सरोवर ! दिन और रात प्यासों को पानी पीने देना, क्योंकि गया हुआ जल तो प्राषाढ़ मास के मेघों से फिर मिल जायगा।
___-राजा भोज
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