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शेष विद्या प्रकाश ::
का गुण है जिसकी विद्यमानता में हो संपूर्ण जीव राशि के साथ मैत्री भाव का विकास होता है । ख्याल रखना होगा कि वैर, विरोध, ईर्ष्या, क्लेश, अपमान, संघर्ष और आप बड़ाई इत्यादिक लक्षण दयालु आत्मा के हर्गिज नहीं है । अपनी वस्तु में भी अपनत्व का त्याग ही दान है ।।
धर्म की स्थापना अर्थात धर्म के मूलों को मजबूत करने के लिए क्षमाधर्म को नितान्त आवश्यकता है । प्रात्मा में जब वीरता का विकास होता है तब क्षमा प्राप्त होती है, इसीलिए "क्षमा वीरस्य भूषणम्" बोला जाता है । शारीरिक वीरता में तामसिकता का सदभाव है और प्रात्मा की वीरता में सात्विक भाव है । धर्म का नाश क्रोध और लोभ से होता है। सहन करने की शक्ति के अभाव में क्रोध बढ़ता है। पुत्र लोभ, धन लोभ, सत्ता लोभ, इज्जत लोभ इसे लोभ कहा जाता है । अतः प्रात्मा के वैकारिक भाव को छोड़कर सत्यधर्म, दयाधर्म, दानधर्म और क्षमाधर्म में अभ्यास बढाना हितकर है ॥२०॥
सूर्य के अस्ताचल जाने के पहिले जो धन याचकों को नहीं दिया गया है, मैं नहीं जानता कि वही धन प्रातःकाल में किसका होगा?
-राजा भोज दूसरों का भला करने का यही अवसर है, जब तक कि स्वभावतः चञ्चल यह श्रीमंताई तेरे पास विद्यमान है। अन्यथा विपत्ति का समय भी निश्चित है, तब भला उपकार करने का अवसर कहां रहेगा?
-राजा भोज
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