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कृतज्ञता___मैं मेरे पूज्य गुरुदेवों का जो स्वर्गस्थ हैं, काफी कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरे जैसे पत्थर को कुछ दिया, कुछ सुधारा और एक मानवीय आकृति बना ली। स्वप्न में भी वे मेरे पूज्य हैं, श्रद्ध य हैं, और ध्येय हैं।
स्मरणश्च
अब आखिरी स्मरण मेरी दोनों माताओं का करना है। एक माता ने मुझे जन्म दिया और मेरे पार्थिव शरीर में सुदृढ़ता
और रक्त में सात्त्विकता दी, तो दूसरी माता जो मेरी धर्म माता है, उसने मुझे स्थिरता दी, गम्भीरता दी, और मेरी आत्मा को स्थितप्रज्ञ सी बना दी । जन्म देने वाली माता को मैं ज्यादा नहीं पहिचान सका, परन्तु मेरी प्रकृतियों को देखकर अनुमान कर सकता हूँ कि आप बड़ी सहृदय और दयालु होगी। धर्म माता जिनका नाम मोतीबाई है (करांची वाले निहालचन्दजी लक्ष्मीचन्द जी कुवाड़िया की धर्मपत्नि) जो सुरेन्द्रनगर (सौराष्ट्र) में स्थित है, आपके मायालु स्वभाव का मुझे खूब परिचय है।
इस कृति को उन मातृद्वय के कर-कमलों में रखकर यही कहूँगा कि-'इससे जिस किसी को फायदा होवे, और उसका जो पुण्य हासिल होवे वह मेरी दोनों माताओं को मिले, यही शासनदेव से प्रार्थना है।
किसी भी सुभाषित को वक्ता या लेखक जिस तरफ ले जाना चाहे, सुख-पूर्वक ले जा सकता है, मैंने भी यही किया है जो मेरे मन में था। कुछ शताब्दियों से मानवता की प्रतिष्ठा का वास होता गया है और अर्थ प्रधानता का बोलबाला आज सब क्षेत्रों में प्रवेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com