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शेष विद्या प्रकाश ::
'विद्याधन की महत्ता'
न चौरहार्य न च राजहार्य
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि । व्यये कृते वर्धत एव नित्यं
विद्याधनं सबंधनात् प्रधानम् ।।१०।।
अर्थ-शक्ति सम्पन्न मान्त्रिक चोर भी जिसको चोर न सके। राजा भी जिसका अपहरण न कर सके। भ्रात वर्ग भी जिस धन का भाग न पड़वा सके । रक्षण, अर्जन और व्यय में किसी भी प्रकार का भार न लग सके । फिर भी व्यय करने पर बढ़ता रहे । ऐसा विद्या रूपी धन जो मानसिक, वाचिक और शारीरिक दूषणों का त्याग करवा कर प्राचार, विचार और उच्चार में प्रौनत्य प्राप्त करवाने में अत्यन्त समर्थ है। प्रत्येक मानव के लिए सांसारिक सब पौदगलिक धन से विद्याधन बड़ा है। खूब याद रखना होगा कि बालकों को विद्या की जितनी प्रावश्यकता है, उससे भी ज्यादा बालिकाओं को भी है, क्योंकि उनको मातृपद प्राप्त करना है, जो दुनिया भर के पदों से अत्यन्त उत्कृष्ट पद है।
जिस समाज में. जाति में और कुटुम्ब में कन्याओं के प्रति अनादर है, अर्थात विद्यादान देने में उत्साहित नहीं है, वे कुटुम्ब, जाति और समाज किसी हालत में भी उन्नति करने लायक नहीं हैं ।। १० ।।
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