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शेष विद्या प्रकाश ::
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'धार्मिकता का सार' खामेमि सब जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मिती मे सव्व भृएसु, व मज्झं न केणई।।१५|| क्षमयामि सर्वजीवान्, सर्वे जीवा क्षमन्तु मे । मैत्री मे सर्व भूतेषु . वैरं मम न केनचित् ।।१६।। ___ अर्थ- क्षमा ही मानव मात्र के जीवन की साधना का चरमलक्ष्य है, उनकी प्राप्ति होते ही जीवन उच्चतर बन जाता है और वृति तथा प्रवृति में एक-रूप्य स्थापित होता है, तब उसके हृदय के उद्गार ऐसे होते हैं ।
__"मैं सब जीवों को खमाता हूँ सब जीव मुझे क्षमा करें, सम्पूर्ण जीवराशि का मैं मित्र हैं, और मेरा किसी के साथ वैर नहीं है" ||१५-१६॥
सेवा, स्वावलम्बन, संगठन, शिक्षा प्रहार और साहित्य ये पांच सकार पंचामत है। और इसी पञ्चामृत से इन्सान का जीवन धन्य बनता है।
-विजयवल्लभ सूरिजी बेटा! फकीर का लिबास (वेश) तो सब (क्षमा) का लिबास है। जो शख्स यह लिबास धारण करता है परन्तु कष्ट सहन करने का अभ्यास नही करता है वह मानो इस लिबास का दुश्मन है,
और इसे धारण करने का अधिकारी नही है । समझ में नही आता कि कोई बड़ी भारी नदी एक पत्थर से क्योंकर गंदी हो सकती है ? जो फकीर कष्ट देख कर घबराता है, वह तो सिर्फ छिछला पानी है। फकीर तो हंसते हंसते कष्टों का सामना करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com