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:: शेष विद्या प्रकाश
'क्षमाधर्म की समर्थता' क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति । अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ॥१७।।
अर्थ- अभ्यास और वैराग्य के द्वारा जिस जीवात्मा ने अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों तथा मन से अनादिकालीन पड़े हुए बुरे संस्कारों को निकालकर क्षमाधर्म को स्वीकार किया है, उस भाग्यशाली का नुकसान नाराज हुमा राजा भी, दुर्जन भी, नहीं कर सकता है, जैसे घास रहित जमीन पर यदि आग की वर्षा हो जाय तो उस आग का स्वयमेव शान्त होने के अतिरिक्त और कुछ भी फल नहीं होता है । ख्याल रखना होगा कि इन्द्रियों को गुलामो छोड़े बिना कषायों ( क्रोध, मान माया, लोभ ) का त्याग सर्वथा असम्भव है, और कषायों के सद्भाव में ज्ञान, ध्यान, तप और संयम की आराधना काकदंत की गिनती के समान निष्फल है, अतः क्षमाधर्म ही श्रेष्ठ है ।।१७।।
श्रद्धा इन्सान मात्र को हमेशा बल और हिम्मत देती है, परन्तु वह श्रद्धा,ज्ञान और विवेक युक्त होनी चाहिए । अन्यथा ज्ञान और विवेक रहित श्रद्धा से हजारों का पतन भी देखा गया है। संतों की सेवा से शीघ्र ही आत्मकल्याण होता है।
-धर्मदास गणी
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