________________
:: शेष विद्या प्रकाश 'संत महिमा' साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । तीथं फलति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ।।५।। __ अर्थ- सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवहिंसा का भी त्याग करने वाले साधुभगवंतों का दर्शन पुण्य स्वरूप माना गया है, क्योंकि ऐसे पवित्र साधु स्वयं संसारी जीवों के लिए तोर्थ रूप माने जाते हैं। स्थावर तीर्थ तो भवभवांतर में फल देते हैं । परन्तु जङ्गमतीर्थ स्थानीय मुनि भगवंतों का समागम तो मानवमात्र को परमसुख शान्ति और समाधि तत्काल देने वाला होता है । बहुत से उदाहरण अपने सामने हैं कि संत समागम से कामियों का काम, क्रोधियों का क्रोध और लोभियों का लोभ नष्ट होकर इस भव में ही मानव पारसमणि के समान बन गया है ।।५।।
यह याद रखना बहुत जरूरी है कि अगर हमारी आंखें रागद्वेष से रञ्जित हों, और हृदय बुरी लालसाओं से भरा हुआ हो तो सब से अच्छे लक्ष्य प्राप्त नहीं होते, इसलिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि हमें क्या प्राप्त करना है ? इससे पहिले हम यह ध्यान रखें, कि हम उसको पाने के लिये उपाय कैसे कर रहे हैं। हम तो एक दूसरे पर द्वेष या दाव चलाने के फेर में पड़ गये हैं, वह हमको बैरी मानता है, इसी प्रकार हम भी ।
अतः सुन्दर से सुन्दर बहस और विवाद भी हम उससे नहीं निकाल सकते। अगर हम इसी चक्कर में घूमते रहे तो नतीजा यह रहेगा कि एक दूसरे हम सभी का नाश कर लेंगे, और साथ ही असली शक्ति, ध्येय और शान्ति भी नहीं मिलेगी।
___ -जवाहरलाल नेहरु
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com