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शेष विद्या प्रकाश ::
— संत दुर्लभता' शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे । साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने॥६॥
अर्थ- जैसे माणिक्य नाम का रत्न सब पर्वतों में नहीं होता है । मोती सब हाथियों के गण्डस्थल में पैदा नहीं होता है । चन्दन का वृक्ष भी सब जङ्गलों में दिखता नहीं है। उसी प्रकार निर्लोभी, संयमी और तपस्विता के साथ साथ मानव यात्रा के प्रति उदार मनवाले सच्चे साधु महाराज भी सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते हैं। ।।६।।
'दादा गुरू को स्तुति' यस्यज्ञानमनन्तदर्शिसमयां
भोराशिमन्थाचलो। यस्य शान्तिरनल्पकोपनजन
क्रोधाग्निधाराधरः॥ यस्य ब्रह्मतपः सहस्रकिरणो
भूमण्डलोद्योतको । विश्वाभ्यर्चित संयमो विजयते
___श्री धर्म सूरीश्वरः ॥७॥
अर्थ-दीक्षित अवस्था के पहिले अनुमानतः जो निरक्षर थे परन्तु दीक्षा के पश्चात गुरुकुलवास, गुरुसेवा और मन, वचन, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com