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'किञ्चिद्वक्तव्यं स्मरणच'
चिरपरिचित पण्डित श्री शेषमलजी सत्तावत से मेरा आत्मीय सम्बन्ध घनिष्ठ रहा है। जब मैं छोटा था और माहिम-बम्बई में श्रीमान श्री प्रेमचन्दजी देवीचन्दजी बाली वालों के यहां नौकरी कर रहा था, उसी समय में या उसके कुछ पहिले मेरी भावना दीक्षा लेने की बन चुकी थी, परन्तु कहां पर ली जाय, जिससे मेरे जीवन का सुधारा होने के साथ कुछ ज्ञान संज्ञा प्राप्त कर सकू? तभी मुझे पण्डितजी से सम्बन्ध हुआ, और दीक्षा लेने के लिए मैं करांची चला गया और पूज्यपाद. शासनदीपक श्री १००८ श्री विद्याविजयजी महाराज साहब के पास दीक्षित हुआ। मेरा परम भाग्योदय था कि दीक्षा लेने के पश्चात् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम बड़ी शीघ्रता से होता गया और क्रमशः पांच प्रतिक्रमण, प्रकरणादि प्रन्थों से निपट कर मैं सिद्धहेम व्याकरण में प्रवेश कर गया और गुरु कृपा से दो अक्षर प्राप्त कर लिये। भाई शेषमलजी जिनको मैं मेरे उपकारी मानता हूँ, मेरे ऊपर उनका वात्सल्य अगाध रहा है। मुझे पूरा अनुभव है कि मेरी इस प्रकार चढ़ती, बढ़ती को देखकर वे बड़े प्रसन्न भी हैं। करांची और पोरबन्दर में मुझे व्याकरण रटते हुए और आवृति करते हुए देखा, और शिवपुरी में स्याद्वाद मञ्जरी रटते हुए तथा रत्नाकर अवतारिका का मनन करते हुए देखा, तब मैं नहीं जान सकता कि वे कितने राजी हुए होंगे ? और बाली (राजस्थान) के विशाल व्याख्यान भवन में, भगवती सूत्र के तात्विक व्याख्यान और जैन रामायण के हृदयस्पर्शी व्याख्यान सुनने के बाद प्रसन्न तो अवश्यमेव हुए होंगे ही परन्तु साथ साथ इस बात का अानन्द भी होगा कि 'मैं भले ही दीक्षा न ले सका परन्तु एक भाग्यशाली को मैं दीक्षित कर सका हूँ।' अस्तु !
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