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समस्या को देखना सीखें
नहीं पहुँच पाए । नदी के पार ऊंट को तेजी से दौड़ता देखकर एक ने सोचा---'धर्म की गति तीव्र कही गई है अतः यह दौड़ने वाला ही धर्म है ।' दूसरे पंडित ने श्मशान पर गधे को खड़ा देखकर श्लोक याद करते हुए सोचा- 'राजद्वार और श्मशान पर मिलने वाले को अपना इष्ट मानना चाहिए अतः यह गधा हमारा भाई है ।' तीसरे ने गधे और ऊंट को एक साथ इसलिए बांध दिया कि इष्ट को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिए और चौथे ने नदी पार करते समय अपने पंडित मित्रों को डूबते देखकर तलवार से उनका सिर काट लिया, क्योंकि सम्पूर्ण नष्ट होने में से आधा बचा लेना बुद्धिमानी है ।
इन चारों मूों ने शास्त्र का कहीं उल्लंघन नहीं किया । शास्त्र के शब्दों और श्लोकों का आधार लिया । आज भी धर्म के समबन्ध में पंडित लोग शास्त्रों का प्रमाण देते हैं। विधि-निषेध और शास्त्रों का विधान बताकर छुआछूत, शूद्र के वेद सुनने पर कान में पिघलता शीशा डाल देना आदि का औचित्य सिद्ध करते हैं । यदि आत्मानुभूति का प्रसंग होता तो शास्त्रों की दुहाई नहीं चलती । धर्म अपने अनुभव के आधार पर कहा जाता है । अहिंसा अच्छी है किन्तु क्या महावीर, गौतम और कृष्ण के कहने से ही ? तुम स्वयं अपनी आत्मा से पूछो | अपना सही विश्वास अहिंसा पर करो, जीवन में उतारो और फिर अनुभव से कहो कि अहिंसा सचमुच अच्छी है । वह दार्शनिक है
शास्त्र की वाणी दोहराई जाती है परन्तु आत्मानुभव दोहराया नहीं जाता । बुद्धि का पृष्ठ जहां समाप्त होता है, धर्म वहीं से प्रारम्भ होता है । इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समाप्ति ही धर्म का प्रारम्भ है । आज हमारा धर्म बौद्धिक बनकर रह गया है, निरा बौद्धिक व्यायाम हो गया है । भारतीय ग्रन्थों को पढ़कर लगता है कि वे दर्शन नहीं, बौद्विक ग्रंथ हैं। पिछले लगभग एक हज़ार वर्षों के सभी ग्रंथों में बौद्धिक युग है । विगत लगभग बारह सौ वर्षों का युग नैयायिक एवं तार्किक युग है । दार्शनिक ग्रंथ द्रष्टा के द्वारा लिखे जाते है, लिखने वाला आत्मद्रष्टा होता है | 'दर्शनाद् ऋषि' जो देखता नहीं, वह दर्शनकार नहीं हो सकता | आज का दार्शनिक केवल ज्ञानी और बौद्धिक है, दार्शनिक नहीं । जब हम अपनी इन्द्रियों और मन को वश में करके आत्मानुभूति की गहराई तक जाते हैं तो दर्शन प्राप्त होता है । जो ध्यान नहीं करता, निदिध्यासन नहीं करता, वह दार्शनिक नहीं हो
समाधान है आत्मानुभूति
धर्म की समस्या नहीं सुलझने का कारण आत्मानुभूत धर्म का अभाव । इस समस्या का कारण है कोरा बौद्धिकता का धर्म । बुद्धि का काम है स्पर्धा पैदा करना और जहां स्पर्धा है वहां समस्या है । सभी वर्गों में यह समस्या अर्थ, पद आदि के लिए देखी जाती है और इसीलिए वहां समस्याएं भी उभरती हैं ।
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