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[ १८ ] कृतकार्य नहीं हो सकता अतः सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर ही मोक्षाराधनाका आरम्भ होता है पहले नहीं।
(भीषणजीने सर्व भारतीय दर्शनोंके विरुद्ध अज्ञान दशाकी क्रियासे मोक्ष की आराधना क्यों अङ्गीकार की ?)
भीषणजीने अपने गुरुको नीचा दिखानेके लिये जो संकल्प किया था उसकी पूर्तिके लिये सिद्धान्तमें हेर फेर करके एक नवीन सम्प्रदाय निकाला और इसका मूलसिद्धान्त दयादानमें एकान्त पाप मानना अङ्गीकार किया। ऐसा मानने पर यह सम्प्रदाय अनायास ही वाइस सम्प्रदायके सिद्धान्तोंसे असहमत होकर पृथक् हो गया। इन्होंने दयादानको एकान्त पापमें सिद्ध करनेके लिये और कोई मार्ग न देख कर जिन आज्ञामें ही धर्म और पुण्य होना मान लिया परन्तु मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव भी अकाम निर्जरा आदि क्रियाके द्वाग पुण्य बांध कर स्वर्ग जाते है यह देख कर इनको मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी जीवकी क्रिया भी जिन आज्ञामें ही माननी पड़ी। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि की क्रियाको आज्ञामें मान कर हीन दीन दुःखी जीवोंको दिये जाने वाले अनुकम्पादान को आज्ञा बाहर बताकर उसे एकांतपापका कारण बताया।
जीतमल जीने भीषणजीके उक्त मतकी पुष्टिके लिये भ्रमविध्वंसन नामक ग्रन्थ बनाया और उसके पहले प्रकरणमें विविध कुयुक्तियोंका आश्रय और शास्त्रोंका अनर्थ करके मिथ्यादृष्टिको क्रियाको आज्ञामें स्थापन करने की चेष्टा की दूसरे प्रकरण दानाधिकारमें हीन दीन जीवको दिये जाने वाले अनुकम्पा दानको आज्ञा बाहर ठहरा कर उसमें एकांत पाप बतलाया। हीन दीन दुःखी जीवोंको दिये जाने वाले दानमें प्रत्यक्ष अनुकम्पारूप गुण देखनेमें आता है और अनुकम्पा करना शास्त्रमें सातवेदनीय कर्मका कारण माना है यह देख कर जीतमलजीने अनुकम्पाका शास्त्रविरुद्ध सावध और निरवद्य दो भेद बताया और इसके लिये अनुकम्पाधिकार नामक तीसरा प्रकरण लिखा । भगवान् महावीर स्वामीने गोशालकके ऊपर अनुकम्पा करके उसके प्राण बचाये थे और जगत में जीवरक्षा करनेका एक पवित्र आदर्श रक्खा था इस कार्यसे अनुकम्पाका समर्थन होता देख कर जीतमलनीने भगवान् महावीर स्वामीपर चूक जाने का लांछन लगाने के लिये लब्धि गोशालक और गुण वर्णन आदि प्रकरण लिखे और उन प्रकरणोंमें शास्त्र के मर्थका अनर्थ करके यथा कथंचित् भगवान महावीर स्वामीके चूकनेका साधन किया। यह सब अनर्थ इन लोगों को दया दान में पाप स्थापन करनेके लिये करना पड़ा है।
इन लोगोंके शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंका प्रकाश करनेके लिये इस सद्धर्ममण्डन नामक प्रन्यकी रचना हुई है अत: इस ग्रन्थके प्रकरणोंका दूसरा नाम न रखकर भ्रम
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