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[ १६ ] अर्थात तीन प्रकार ( आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) के दुःखोंकी मात्यन्तिक निवृत्ति हो जाना अत्यन्त पुरुषार्थ ( मोक्ष ) है । दुःखोंकी आत्यन्तिकनिवृत्ति (मोक्ष) लोकमें देखे जाने वाले धन, प्रियजनोंके संयोग आदि उपायोंसे नहीं हो सकती जैसे भोजन करनेसे सदाके लिये भूख नहीं मिटती वैसे ही लौकिक उपायोंसे सदाके लिये दुःख दूर नहीं होते। इन उपायोंसे दुःख पूर्ण रूपसे नष्ट नहीं होते, थोड़े बहुत होते भी हैं तथापि वे विद्यम न रहते हैं। लौकिक उपायोंसे उत्कृष्ट राज्य आदि लौकिक पदार्थ प्राप्त होते हैं लेकिन वेदमें मोक्ष उनसे भी बहुत उत्कृष्ट बताया है इसलिये भी उन उपायों से वह प्राप्त नहीं हो सकता।
इसके बाद यह प्रश्न किया गया है कि “यदि दृष्ट साधनसे सर्वथा दु:खका नाश नहीं होता तो वेद विहित यज्ञ आदि कर्मो से हो जायगा ? इसका उत्तर कपिल ऋषि कहते हैं-"अविशेषश्चोभयोः' (सू०६) इसके भाष्यका अर्थ यह है-दोनोंका अर्थात् दृष्ट जो लोकमें देखनेमें आता है व अदृष्ट जो यज्ञ साधन धर्मफळ देखनेमें नहीं आता इन दोनोंका जैसा कहा गया है, आत्यन्ति दुःखको निवृत्ति के साधन होनेमें विशेष नहीं है । अर्थात दोनों ही एक समान हैं, अत्यन्त दुःखकी निवृत्ति यज्ञ आदिसे भी नहीं होती। मोक्ष के साधक होनेमें विवेक ( सम्यग् ज्ञान ) होना ही मुख्य उपाय है। विवेक से अविवेकका नाश होने पर दुःख मात्रका नाश होता है अन्यथा नहीं होता"
इस प्रकार विना विवेक (सम्यग् ज्ञान ) के मोक्ष होना अत्यन्त असम्भव बता कर सत्रकार स्वयं कहते हैं "ज्ञानान्मुक्तिः " (अ० ३ सूत्र २४ ) अर्थात् ज्ञान हाने पर ही मुक्ति होती है और "वन्धो विपर्यायात्" (सूत्र २५) अज्ञानसे वन्ध होता है।
इस तरह सांख्य दर्शनके अनुसार भी यह सिद्ध है कि कोई व्यक्ति यज्ञ, जप, तप, आदि क्रियाएं भले ही करता रहे परन्तु जब तक उसे सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक उसकी ये क्रियाएं मुक्तिका कारण नहीं हो सकती ज्ञान होने पर ही मोक्ष की आराधना हो सकती है।
पतञ्जलि ऋषि अपने योगदर्शनमें कहते हैं"तस्यहेतु रविद्या । तदभावात्संयोगाभावो हानं तद्दशेः कैवल्यम्”
(साधनपाद सूत्र २४।२५). अर्थात् संसारका मूल कारण अविद्या है। अविद्या, मिथ्याज्ञानको कहते हैं । मिथ्या ज्ञानका नाश होनेसे. आत्माको मोक्ष प्राप्त होता है वहीं मोक्ष आत्माका कैवल्य है। अन्य वस्तुका संसर्ग न होनेसे वही आत्माकी शुद्ध निखोलश अवस्था है।
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