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नियमसार
सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभावरूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्गभाञ्जि भवंति। एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोर्द्वयोर्बोद्धव्य इति ।
(मालिनी) अथ सकलजिनोक्तज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा ।
परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः ।। सपदि विशति यत्तच्चिच्चमत्कारमात्रं ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१७।। कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ह्न ये तीन ज्ञान केवल (मात्र) विभावरूप हैं अर्थात् विभावज्ञानोपयोगरूप हैं।
इन उपयोग के भेदरूप ज्ञान के भेदों को आगे ग्यारहवीं और बारहवीं ह्न दो गाथा सूत्रों में कहा जायेगा; अत: उन्हें विशेषरूप से वहाँ से जानना चाहिए।' __गाथा में तो मात्र इतना ही कहा है कि जीव उपयोगमय है और उपयोग ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है। ज्ञानोपयोग भी स्वभावज्ञानोपयोग और विभावज्ञानोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है; किन्तु टीकाकार न केवल इन सभी का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, अपितु यह भी कह देते हैं कि उपयोग के शेष भेदों को आगामी दो गाथाओं में समझायेंगे ।।१०।। इसके बाद श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं, छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(रोला) जिनपति द्वारा कथित ज्ञान के भेदजानकर।
परभावों को त्याग निजातम में रम जाते। कर प्रवेश चित्चमत्कार में वे ममक्षगण|
___ अल्पकाल में पा जाते हैं मुक्तिसुन्दरी ।।१७|| जिनेन्द्रकथित समस्त ज्ञान के भेदों को जानकर जो पुरुष परभावों का परिहार करके निजस्वरूप में रहते हुए चैतन्यचमत्कार तत्त्व में शीघ्र ही प्रविष्ट हो जाता है, उसकी गहराई में उतर जाता है; वह पुरुष मुक्ति सुन्दरी का पति हो जाता है।
इस कलश में मात्र इतना कहा गया है कि जो भव्यजीव जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि में समागत उपयोग के भेद-प्रभेदों को भलीभांति जानकर निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करके अपने में ही स्थित हो जाते हैं, समा जाते हैं; वे भव्यजीव अतिशीघ्र मुक्त दशा को प्राप्त कर लेते हैं|१७||