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जीव अधिकार
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ ।
णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ।। १० ।। जीव उपयोगमयः उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति । ज्ञानोपयोगो द्विविध: स्वभावज्ञानं विभावज्ञानमिति ।। १० ।।
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अत्रोपयोगलक्षणमुक्तम् । आत्मनश्चैतन्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । अयं धर्मः । जीवो धर्मी । अनयो: सम्बन्ध: प्रदीपप्रकाशवत् । ज्ञानदर्शनविकल्पेनासौ द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभावविभावभेदाद् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानम् अमूर्तम् अव्याबाधम् अतीन्द्रियम् अविनश्वरम् । तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति । कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं
इसप्रकार इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि जो भव्यजीव जिनेन्द्रभगवान की दिव्यध्वनि में समागत, जिनागम में निरूपित द्रव्य व्यवस्था या तत्त्वव्यवस्था को जानकर, उसकी श्रद्धा करता है और तदनुसार आचरण करता है; वह भव्यजीव अतिशीघ्र मुक्ति दशा को प्राप्त करता है ||१६||
नौंवीं गाथा में छह द्रव्यों की सामान्य चर्चा की; अब इस गाथा में जीवद्रव्य की चर्चा विस्तार से करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
( हरिगीत )
जीव है उपयोगमय उपयोग दर्शन ज्ञान है।
स्वभाव और विभाव इस विधि ज्ञान दोय प्रकार है ॥ १० ॥
जीव उपयोगमय और उपयोग ज्ञान और दर्शन है। इनमें ज्ञानोपयोग स्वभावज्ञान और विभावज्ञान के भेद से दो प्रकार का है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"इस गाथा में उपयोग का लक्षण कहा गया है। चैतन्य का अनुसरण करके वर्तनेवाला आत्मा का परिणाम उपयोग है। उपयोग धर्म और जीव धर्मी है। धर्म और धर्मी में प्रकाश और दीपक जैसा संबंध है ।
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से उपयोग दो प्रकार का है। इसमें ज्ञानोपयोग भी स्वभावज्ञानोपयोग और विभावज्ञानोपयोग के भेद से दो प्रकार का है । इनमें स्वभावज्ञानोपयोग अमूर्त, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनाशी है । वह स्वभावज्ञानोपयोग कारणस्वभावज्ञानोपयोग और कार्यस्वभावज्ञानोपयोग के भेद से दो प्रकार का है।
कार्यस्वभाव ज्ञानोपयोग तो सम्पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान है और उसका कारण परमपारिणामिकभावरूप से स्थित त्रिकाल निरुपाधिक सहजज्ञान कारणस्वभावज्ञानोपयोग है ।