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मृलाराधना
आश्वासः
अथ के पंडितपंडिता यणं मरण पंडितपंडिनमरणं इति भण्यते इत्यारेकायामाह
पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव ॥ एदाणि तिपिण मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसति ॥ २८ ॥ निःश्रेयससुखादीनां आसन्नीकरणक्षमं ॥ .
आदिम जायते तत्र प्रशस्तं मरणत्रयम् ।। ३१ ।। विजयोदया-परिदपंडिदमरणं पंडिदं वाटप दिदं चैव इति । बिरताविरतपरिणामधिशेषनिर्देशालेय जीव द्रव्यल्प गते जीया इति सूत्रे बचनमपार्थकमिति चेक्षानर्थक । मतांतरनिवृत्तिपरत्वात् । सांख्या हि प्रकृतिधर्मतां मरणस्वाभ्युषयन्ति पुरुषस्य सर्वथा नित्यत्वात् । तत्तथा न, उत्पादन्ययधोव्यात्मकत्वादात्मनः । अनोच्यते-पंडितपरितमर णादनंतर पंडिनमरपी तदुलंध्य कृतीयम्य स्वामित्व कस्मातादयते नामोल्लंसने प्रयोजन वाग्यम् ? इति बुच्यते-टस्कृष्टजघन्य पंडितत्वमध्यनुत्तिपडितत्वमित्येतदाण्यातुं उभयावधिप्रदर्शन कियने । अथवा पंडितमरणे बटुवक्तव्यमस्तीति तत्सान्या. निक व्यवस्थाप्य अल्पवकन्यतया बालपंदितमेव प्राग व्याचष्टे ।
शंका-विरताविरतपरिणामविशेपसे ही श्रावक जीव है ऐसा समझम आता है तो मी 'विकायदा जीवा' इसमें जीवशब्दका ग्रहणा व्यर्थ है. उत्तर जीय शन्द गाथामें दिया है उसका उद्देश मतांतर निराकरण करने के लिये है, सांख्य मरण प्रकृतिका धर्म है ऐसा समझते है. वे पुरुपको-आत्माको सर्वथा नित्य समझने है. परंतु वह समझना योग्य नहीं हैं, आन्मा उत्पाद, व्यय और धोव्य इन तीन खरूपासे युक्त है अतः वह सर्वथा नित्य नहीं है.
शंका-पंडितपंडित मरणके अनंतर पंदिनमरणका वर्णन करना योग्य था परंतु वह उहंघन कर तिसरे मरणके स्वामी आपने क्यों बताये ? कमका उल्लंघन करने में आपका क्या हेतु है ?
उत्तर --- उत्कृष्ट पंदितस्व और जघन्य पंडितत्व इनके बीच जो है मो मध्यम पंडितत्व है ऐसा दिखानके अभिप्रायसे उपर्युक्त कथन है, अर्थात उत्तम पंडितत्व और जघन्य पंडितत्वके विवेचनसे मध्यम पंडितत्व विना कहे सिद्ध होता है. अथवा पंडितमरणके विषयमें ग्रंथकार बहुत विस्तारयुक्त लिखनेवाले है. इस वास्ते उसको आचार्य अलग रखते हैं और थोडासा विवेचन करनेकी इच्छासे बालपंडितत्वका प्रथम आचार्यने उल्लेख किया है.
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