________________
लब्धिसार
[ गाथा ५३-५४ आगे अपूर्वकरणपरिणामका कार्यविशेष बताने के लिए गाथासूत्र कहते हैंगुणसेडीगुणसंकमठिदिरतखंडा अपुरकरणादो। गुणसंकमेण सम्मा मिस्ताणं पूरणोत्ति हवे ॥५३॥
अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर : गुगणसंक्रमण से सम्यक्त्व-मिश्रद्वय प्रकृतिके पूरनेके कालके चरमसमयपर्यन्त गुगगरिग, गुणसंक्रमण, स्थितिकांडकघात और अनुभागकांडकघात होते हैं।
विशेषार्थ-उपशमसम्यक्त्वके काल में यद्यपि दर्शनमोहको गुणश्रेणि व स्थितिकांडकघातादि नहीं होते, किन्तु आयुकर्म और मिथ्यात्वको छोड़ कर शेषकर्मों के स्थितिघात, अनुभागघात और गुणग्गिरूप कार्य तबतक होते रहते हैं जबतक गुग्गसंक्रमण (मिथ्यात्वका) होता रहता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुखजीबके अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे गुणसंक्रमण प्रारम्भ नहीं होता, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रथमसमयसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमें असंख्यातगुणे क्रमसे प्रदेशज देनेके लिये गुणसंक्रमण प्रारम्भ होता है। इसप्रकार अन्तर्मुहुर्तकालतक गुणसंक्रमण होता है उसके पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके अन्ततक विध्यातसंक्रमगा होता है ।
स्थितिबन्धापसरण कब तक होता है सो कहते हैं"ठिदिबंधोसरणं पुर अधापबत्तादुपूरणोति हवे ।
ठिदिबंधट्टिदिखंडक्कीरणकाला समा होनि ॥ ५४॥
अर्थ-स्थितिबंधापसरण भी अधःप्रवृत्तकरणसे लेकर सम्यक्त्व व मिश्रप्रकृतियोंके पूरणकालतक होता है। स्थितिबंधापसरण काल और स्थितिकांडकघातका उत्कीरण काल ; ये दोनों काल समान अर्थात् तुल्य होते हैं ।
विशेषार्थ-स्थितिबंधापसरण यद्यपि प्रायोग्यल ब्धिमें भी होता है, किन्तु यहां उसकी विवक्षा नहीं है, क्योंकि प्रायोग्यलब्धि भव्य और अभव्य दोनोंके समानरूपसे होनेसे प्रायोग्यलब्धिमें सम्यक्त्वोत्पत्तिका नियम नहीं है। (देखो गा. ७) प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें मिथ्यात्वका बन्ध नहीं होता इसलिये सम्यक्त्वकालमें दर्शनमोहनीयकर्मका बन्धापसरण नहीं होता, किन्तु अन्यकर्मोका बन्धापसरण होता रहता है । १. ज. प. पु. १२ पृ. २८५; प. पु. १६ पृ. ४१५; मो. क. गा. ४१६ । २. ज.ध. पु. १२ पृ २५२ से २८४ । ३. तम्हि द्विदिखंडयद्धा ठिदिबंधगद्धा च तुल्ला । क. पा. सुत्त पृ. ६२५ सूत्र ८७।