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कालके चर्मसगयतक प्रतिसमय में परिणामस्थान साहा, पस्था (मनुयोगद्वार
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एक-एक समय में परिणामस्थान असंख्यात लोक पुम्पण हैं । प्रसाराभ्यनुम्रो
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-क अल्पबहुत्व दोषकारका
विशुद्धियोंकी तीव्रता- मंद्रतासम्बन्त्री प्रल्पबहुत्त्व
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परिणामांकी पतियों की दीर्घता (संख्या के सम्बन्धी पूर्ण कर प्रथम समय में परिणामों की पंक्तिका साया (संख्या के सबसे है उससे दूसरे समयमें विशेष अधिक है । प्रथमसमयसम्बन्धी परिणामों के अन्तुर्भुहूर्तकं सम्यप्रार खण्ड करनेपर उनमेंसे एक खंडप्रमाण विशेषमधिकका प्रमाण है। प्रथम प्रथम मय के परिणामोंको ग्रन्तर्मु हूर्तके समयोंसे भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतके, (असंख्यातलोक ) प्रमाण विशेषअधिक हैं । इसप्रकार अन्तरोपनिषाका श्राश्रय करके प्रर्थात् निरन्तर विशेषअधिक क्रमसे अन्तिमसमय के परिस्यामोशी पंक्ति प्रायाम ( परिग्र की संख्या) के प्राप्त होनेतक कथन करते हुए ले जाना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक समय में पूर्व ही परिणामस्थान होते हैं । इस प्रकार पूर्वकेररके प्रन्तमुहूर्त काल सर्वच सरसेकराम फजिकका महापरिरामस्थान हो
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कर कहते हैं
दूसरे करणकी अपूर्वकस्म "जर जम्दा विदिषं कस
ऐट्रिमाथि सरितं । सिसिद्धि
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अर्थ क्योंकि उपस्मि समय के परिणाम नकीच समयसम्बन्धी परिणामोंके समान नहीं होते इसलिये इस दूसरे करणको पूर्वको कहा गय
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१. अ. ध. पु. १२ पृ. २१२-५३-५४ ।
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समाप्त हुआ ।
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विशेषार्थ - जितने स्थान ऊपर जाकर ' विवेक्षित समर्थक परिणामको अनु वाष्टिका विच्छेद होता है उसका नाम निराकार है, किन्तु यहा पूर्वकरणके प्रत्येक समय में निराकोटकों को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि विवक्षितसमयक परिणाम ऊपरंके एक भी समय में सम्भव नहीं हैं । प्रत्येक समय
स्वरूप अपूर्वकरणका लक्षण जानना चाहिए' ।
उतनी दी है
अनुकृष्टि के विच्छेद :
२. दृश्यताम् ध. पु. १ पृ १८३ । प्रा. पं. सं. घ. १ मा १६३: गो. जी. म.
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