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गाथा ५० ]
लब्धिसार
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(५४ की) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चरमनिर्वर्गरगाकांडकके प्रथमसमयकी (५४ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगरणी है, उससे चरमनिर्वगणाकांडकके द्वितीय समय (५५ की) उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे तीसरे समयकी (५६ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चतुर्थसमयकी (५७ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । इसप्रकार यह क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयतक (अन्तिम निर्बर्गरगाकांडकके अन्तिमसमयतक) ले जाना चाहिए' ।
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are 3. उ. . 3 3. उ उ. ३ उ उ. ३. इ. उ. उ.' उ उपर्युक्तसंदृष्टिमें-- १ से १६ तक की संख्या अधःप्रवृत्तकरणके समयोंको सूचक है ।
मच पूर्वकरण सम्बन्धी कथन करते हैंपरमं व विदियकरणं पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो छ पडिभागो ॥५०॥
अर्थ-प्रथम अर्थात अधःप्रवृत्तकरण के समान द्वितीय अर्थात् अपूर्वकरण है। इसमें प्रतिसमय अधिक क्रमसहित असंख्यातलोक परिणाम होते हैं । विशेष (चय) के लिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रतिभाव है ।
विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणमें प्रतिसमय असंख्यातलोक परिणाम होते हैं और वे चय अधिकक्रमसे होते हैं ऐसा कथन पहले गाथा ४२ में किया जा चुका है । यहां द्वितीय अपूर्वकरणसम्बन्धी कथन किया. जावेगा। अपूर्वकरणसम्बन्धी तीन अनुयोगद्वार हैं--(१) प्ररुपणा (२) प्रमाण और (३) अल्पबहुत्व । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें परिणामस्थान हैं, दूसरेसमयमें परिणामस्थान हैं । इसप्रकार अपूर्वकरणके अन्तर्मुहूर्त
१. ज. प. पु. १२ पृ. २४५ से २५१ तक । १. अपूर्वकरणद्धाए सम्वत्थ समए समए असंखेज्जलोगा परिणामट्ठाणाणि । (क.पा.सुत्त पृ. ६३३)