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गाथा:४६ लब्धिसार
[ ३६ अल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है । स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमें प्रथमखंडका जघन्यपरिणाम सबसे स्तोक है, उससे वहोंपर द्वितीयखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है । उससे वहींपर तीसरेखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है। इसप्रकार वहींपर अन्तिमखण्डका जघन्यपरिमाम अनन्तगुणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक जानना चाहिये । इसप्रकार मात्र प्रथमसमयके परिणामखण्डोंके जघन्यपरिणामस्थानोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थानअल्पबहुत्व किया:। अब.प्रथमसमयमें प्रथमखण्डका उत्कृष्टपरिणाम स्तोक है। उससे वहींपर दूसरे खन्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है, उससे वहींपर तृतीयखण्डका इत्कृष्ट्रपरिणाम अनन्तगुणा है । इसीप्रकार आगे भी अन्तिमखण्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयके सर्वखण्डोंके उत्कृष्टपरिणामोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया । इसीप्रकार दूसरे समयसे लेकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयतक प्रत्येकखण्डके प्रति प्राप्त जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इसके प्रश्चात् स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ' ।
. . परस्पान अल्पवाहत्त्व इसप्रकार है-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमें जघन्यविशुद्धि सबसे स्तोक है, क्योंकि इससे कम अन्य कोई जघन्यविशुद्धिस्थान अधःप्रवृत्तकरा में नहीं है। उससे दूसरे समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथमसमयके जघन्यविशुद्धिस्थानसे षट्स्थानक्रमसे असंख्यातलोकमात्र विशुद्धिस्थानोंको उल्लघकर स्थित हुए द्वितीयखण्ड (४०) के जघन्यविशुद्धिस्थानका दूसरे समय में जघन्यपना देखा जाता है; इसप्रकार अन्तमुहर्तपर्यन्त जानना चाहिए तथा अन्तर्मुहर्त से ऊपर जाकर स्थित प्रथमनिर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिमसमयके प्राप्त होनेतक इस क्रमसे जघन्यविशुद्धिका ही प्रतिसमय अनन्तगुरिणत क्रमसे कथन करना चाहिए । उससे प्रथमसमयकी (४२की.) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुरपी है, क्योंकि इसके अनन्तर पूर्व जो जघन्यविशुद्धि कही गई है वह अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमखण्ड (४२) की जघन्यविशुद्धि है और यह उस अतिमखंड (४२) की उत्कृष्ट्रविशुद्धि है जो उक्त जघन्यविशुद्धिसे छहस्थान क्रमसे वद्धिरूप असंख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थानोंको उल्लंघकर अवस्थित है। इसलिए अनन्तरपूर्वकी जघन्यविशुद्धिसे यह उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी हो गई है । इस उत्कृष्ट१. ज. प. पु. १२ पृ. २४४-४५ ।