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चार भावनाओं में भी मुख्य मैत्री भावना है। शास्त्रों में यह कहां आता है, यह न पूछे । 'खामेमि सव्वजीवे ।' क्या नित्य नहीं बोलते ? क्या यह शास्त्र नहीं है ?
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य के रूप में एक हैं, उस प्रकार जीवास्तिकाय भी एक ही द्रव्य (जीव अनन्त होते हुए भी) है, इस तरह 'भगवती' में उल्लेख है ।
___ यहां देखें, जीवास्तिकाय में निगोद से लगा कर सिद्धों के समस्त जीवों का संग्रह हो चुका है । एक भी जीव बाकी नहीं है।
'जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है' यह पढ़कर तनिक शंका हुई कि कहीं अशुद्ध तो नहीं है ? परन्तु बाद में ध्यान आया कि 'अरे ! यह तो समस्त जीवों की बात है । समस्त जीव अनन्त हों तो उनके प्रदेश भी अनन्त ही होंगे न ? जीवास्तिकाय द्रव्य से एक, क्षेत्र से लोकव्यापी, कालसे सर्वदा सदा है और रहेगा।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी कहते, 'उपयोगो लक्षणम्' यह स्वरूप दर्शक लक्षण है । 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' यह सूत्र जीव का सम्बन्ध दर्शक लक्षण है । "एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते' यह बताने वाला यह लक्षण है । आप दूसरों को अपने समान समझते नहीं हैं, जान कर उनकी रक्षा करने का प्रयत्न करते नहीं, तब तक मोक्ष नहीं मिलेगा, भले चाहे जितना ध्यान धरो । पहले हृदय में सभी जीवों के प्रति मैत्री चाहिये ।
* आज तक भगवती का पाठ चलता था । महात्मा ने पूछा, 'अभी सामूहिक वाचना होगी तब क्या बोलना ? क्या उसकी चिन्ता नहीं है ?'
मैंने कहा, 'ये भगवान जैसा बुलवायेंगे, वैसा बोलूंगा।' (सामने ही भगवान का चित्र था, उस ओर देखकर कहा ।)
अहंकार न आये अतः भगवान को निरन्तर सामने रखें ।
* 'धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान न ध्याया' यह अतिचार कब लगता है ?
धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याने का विधान हो तब ही न? इस अतिचार के वाक्य से भी निश्चित होता है कि ध्यान दैनिक धोरण से होना चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwwww ९)