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सम्यग् ज्ञान आदि देकर जीवनभर आपकी रक्षा करने का उत्तरदायित्व भगवान के अतिरिक्त कौन निभा सकता है ?
तीर्थ चलता है तब तक भगवान का अनुग्रह अखण्ड रूप से चलता ही रहेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय भी भगवान ध्यान रख रहे हैं । इसका अर्थ यह भी हुआ कि भगवान ही शासन चला रहे हैं । वे ही शासन की प्रभावना कर रहे हैं । हम प्रभावना करने वाले कौन हैं ? मात्र निमित्त बनें इतना ही । हम अधिक अधिक तो वाहक बन सकते हैं, परन्तु भीतर वहन होता तत्त्व तो भगवान का ही है ।
ऐसे सद्गुणों के भण्डार हमें मिले हैं, यह जान कर उनके प्रति कैसा प्रेम उमड़ता है ?
(९) देवगुरुबहुमानिनः ।
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देव - गुरु के बहुमान से ही वे स्वयं भी ऐसे भगवान बने हैं । अरिहंत बनने वाले अरिहंत की उपासना से ही बने हैं । बीस स्थानक में पहला अरिहंत पद है । शेष उन्नीस में भी अरिहंत अनुस्यूत है ही । किसी भी एक को पकड़े, अरिहंत आ ही जायेंगे । इसीलिए किसी भी एक पद से भी तीर्थंकर नाम कर्म बांध सकते हैं । ये दसों गुण तीर्थंकर बनने की कला है, तीर्थंकर बनने के बीज हैं ।
यदि ये गुण नहीं दिखाई देते हों तो समझ लें कि तीर्थंकर पद में से हम निकल गये ।
कइयों के गुण ही ऐसे होते हैं जिन्हें देख कर ही शब्द निकल जाते हैं कि ये तीर्थंकर बनेंगे । ये तो तीर्थंकर की आत्मा हैं । (१०) गंभीराशयाः ।
प्राण जायें, परन्तु किसी के दोष-दुर्गुण कदापि कहते ही नहीं, जानते हुए भी नहीं कहें ।
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गंभीर आशयरहित गुरु के पास आलोचना नहीं ली जाती । वैसे गुरु नहीं मिलें तो १२ वर्षों तक प्रतीक्षा करने का शास्त्रों में कहा है । एकबार मैं भी ऐसा ही पापी - दोषी था । ऐसी विचारधारा से किसी के भी प्रति धिक्कार उत्पन्न नहीं होता, गम्भीरता बनी रहेगी । गम्भीर आशय मिलना अत्यन्त कठिन हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि- ३
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