Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 369
________________ आप यदि क्रोध को वशीभूत हो जाओगे, झगड़े करोगे तो बदनामी मेरी ही होगी कि इतनी-इतनी वाचना सुनते हैं फिर भी इतने झगड़े ? मुझे यश दिलवाना है कि अपयश ? राग-द्वेष दोनों चोर-लुटेरे हैं । उन्हें भगवान ने क्रूरतापूर्वक कुचल दिये हैं । अरिहंत का यही अर्थ होता है । * सर्व सावध योगों का हमने त्याग किया है । नित्य हम 'करेमि भंते' के द्वारा नौ-नौ बार उन्हें याद करते हैं । अब जीवन में समता की वृद्धि हुई कि ममता की ? तनिक सोचें । कभी 'अध्यात्म कल्पद्रुम' पढ़े। उसमें विशेषतः 'यतिशिक्षाधिकार' में तो आचार्यश्री मुनिसुन्दरसूरिजी ने साधुओं को जोरदार लताड़ दी है। कहा है - 'नौ बार तू नित्य 'करेमि भंते' बोल कर पुनः सावद्य में प्रवृत्ति करे तो मृषाभाषण से क्या तुझे सद्गति मिलेगी ? गृहस्थ भी ज्ञान-ध्यान-काउस्सग्ग आदि की उत्कृष्ट साधना करते हों तो यहां आने के बाद यह साधना बढ़नी चाहिये कि घटनी चाहिये ? कितने लोगस्स का काउस्सग्ग करते हैं ? कि यह लक्ष्य ही नहीं हैं ? उस लक्ष्य के बिना कर्म-शत्रु कैसे भागेगा ? उसके बिना किस प्रकार दुर्गुण जायेंगे? किस प्रकार सद्गुण आयेंगे ? सद्गुणों की सिद्धि के लिए सद्गुणियों को नमस्कार करो । इसके लिए ही नवकार है । प्रत्येक कार्य में खमासमण इस के लिए ही होता है । यह नम्रता का अभ्यास है । नम्रता आने के बाद ही सरलता आयेगी । अभिमानी कदापि सरल नहीं हो सकता । अपना बड़प्पन यथावत् रखने के लिए वह अवश्य माया करेगा । इसीलिए अहंकार पर कुठाराघात करने के लिए नमस्कार भाव है। * ज्ञान आदि गुण जिनमें हों उनकी सेवा करने से हमारे भीतर ज्ञान आदि गुण प्रकट होते हैं । ज्ञान तो फिर भी चला जाये, सेवा नहीं जाती। यह अप्रतिपाती गुण है। तनिक अधिक काम आ जाये तो मुंह तो नहीं चढ़ता है न ? मेरे जीवन में भी सेवा का अवसर आया है । वीरमगाम में आनन्दपूर्वक ५० घड़े पानी ला चुका हूं। महात्माओं का लाभ कहां से मिले ? चित्त में उल्लास बढ़ना चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ Booooooooooooooon ३३७)

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