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परमात्मा उपमारहित हैं । अतः स्तुति में कोई उपमा नहीं चाहिये । उपमा हीन या अधिक होने पर मृषावाद लगेगा । अतः स्तुति उपमारहित होनी चाहिये । जैन दर्शन में यह मत मान्य नहीं है ।
इसीलिए भगवान को यहां सिंह, गंधहस्ती, पुण्डरीक आदि की उपमाएँ दी गई हैं ।
सिंह याद आने पर शौर्य याद आता है । शौर्य याद आने पर महाराणा प्रताप याद आते हैं । जिस युग में राजपूत भी अपनी बहनों-बेटियों का मुगलों के साथ ब्याह करते थे, उस युग में टेक रखने वाले राणा ने जीवनभर मुगल शहंशाहों के साथ संग्राम किया, संघर्ष किया, अपूर्व शौर्य बताया । वे कदापि झुके नहीं । हमें कर्मों के साथ ऐसा संघर्ष करना है, जो परमात्मा ने किया है । इसीलिए प्रभु पुरुषों में सिंह के समान हैं।
__भगवान को नमन करने से उनके समान शौर्य गुण हमारे भीतर आता ही है । दुर्गुणी व्यक्ति को नमन करने से उसके समान दुर्गुण हमारे भीतर आते ही हैं । इसीलिए दुर्गुणी के साथ मित्रता करने का निषेध किया है। आप किसके साथ बैठते हैं ? किसे पढ़ते हैं ? यह कह दो तो आपके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में ध्यान आ जायेगा ।
सदगुणों का प्रभाव पड़ने में तो फिर भी समय लगता है, दुर्गुण तो तुरन्त चिपक जाते हैं ।
लहसुन खाकर आओ तो हमें गन्ध से तुरन्त पता लग जाता है ।
इसी प्रकार से आपके दुर्गुणों की अव्यक्त गन्ध आती है । इसी लिए आदमी दुर्गुणी से दूर भागता है ।
दुर्गुणी को दुर्भग बनाने वाले दुर्गुण हैं। उन दुर्गुणों को अत्यन्त पराक्रम पूर्वक परास्त करने हैं, जिस प्रकार अर्णोराज को कुमारपाल ने पराक्रम बताया था ।
हम क्रोध कराने वाले पर क्रोध करते हैं। कुत्ते की तरह हम लकड़ी को काटते हैं, परन्तु भगवान लकड़ी को नहीं, लकड़ी लगाने वाले को देखते है । वह क्रोध कराने वाले पर नहीं, परन्तु स्व में उत्पन्न होने वाले क्रोध पर ही क्रोध करते है। अपनी पीड़ा में दूसरे किसी को उत्तरदायी नहीं गिनते, स्व को ही उत्तरदायी गिनते है । (३३६ ®®®®® ® ®® कहे कलापूर्णसूरि - ३)