Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 395
________________ दोनों पुस्तकें मिली । सचमुच आपने काफी परिश्रम किया है । आवरण तथा अन्तरंग दोनों दृष्टियों से स्वागत योग्य श्रेष्ठतम प्रकाशन हुए हैं । आपका श्रम साधुवाद का पात्र है । विजयमहाबलसूरि - पुण्यपालसूरि, मुनि भव्यभूषणविजय, पूना - 'कहा कलापूर्णसूरि ने' पुस्तक देखी । अद्भुत वाचनाओं का संग्रह है । जो श्रमण वर्ग के लिए उपयोगी होगा । बंधु - युगल ने ज्ञान-साधना में अभिवृद्धि की है उसकी अनुमोदना करते हैं । आचार्य विजयगुणरत्नसूरि पं. रविरत्नविजय, सूरत 28 8 'कहें' एवं 'कहा' के जाज्वल्यमान प्रकाशन जैन संघ को भेंट देकर आपने महान् उपकार किया है । आपने हमें पूज्यश्री की वाणी का साक्षात् संयोग कराया है । मुनि देवरत्नसागर, मुंबई 8 आचार्यदेवश्री का वाचना ग्रन्थ 'कहा कलापूर्णसूरि ने' परसों ही प्राप्त हुआ है । ग्रन्थ अत्यन्त तात्त्विक एवं मननीय है । इससे पूर्व 'कहे कलापूर्णसूरि' ग्रन्थ मिला, पढ़ा । अत्यन्त ही अद्भुत ग्रन्थ है । - पूज्यश्री के वचनामृत को इस ढंग से प्रस्तुत करके आपने अनुपम श्रुतभक्ति एवं गुरु-भक्ति का परिचय दिया है । साध्वी संस्कारनिधिश्री, उज्जैन ·H पूज्यश्री की इस पुस्तक से मुझ जैसे अज्ञानी जीव पर अत्यन्त कृपा - वृष्टि हुई है, अनेक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए मैं सम्पूर्ण जीवन परिश्रम करूं तो भी प्रायः प्राप्त नहीं हो । 8 कहे कलापूर्णसूरि ३ wwww - ww - साध्वी हंसरतिश्री ७०० ३६३

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