Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 394
________________ दोनों ग्रन्थ मिले । अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आपने पूज्यश्री की यह पवित्र वाणी-गंगा को प्रवाहित की। आप दोनों पूज्य गणिवों ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्पादन कार्य किया है, जो धन्यवादाह है। - पंन्यास विश्वकल्याणविजय श्री पार्श्व प्रज्ञालय तीर्थ आचार्य भगवन् के चिन्तन का खजाना प्राप्त हुआ । 'कहे कलापूर्णसूरि' बैंगलोर निवासी भंवरलालजी ने आयंबिल करने के लिए आते समय दी । साहेबजी का पुण्य, साधना, चिन्तन, भक्ति एवं उनका तेज इतना उच्च कोटि का है कि पूछो ही मत । फिलहाल थोड़ा सा ही चिन्तन पढ़ पाया हूं। उसमें भी इतना आनन्द आया कि वर्णन नहीं कर सकता। ऐसे परम योगी पुरुष का आप अत्यन्त ही उत्तम चिन्तन का संकलन कर रहे हैं, एवं आपने भी उनकी छत्रछाया में अद्भुत ज्ञान-खजाना प्राप्त किया है। मुझे भी समय-समय पर ऐसा खजाना लूटने का अवसर प्रदान करते रहें । - अशोक जे. संघवी, बैंगलोर 'कहे कलापूर्णसूरि' तथा 'कडं कलापूर्णसूरिए' दोनों पुस्तकें प्राप्त हो गई हैं । पूज्यपाद आचार्य भगवंत विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज साहिब के साधना-जिनभक्ति रसमय जीवन से टपकती साधक-वाणी उपलब्ध कराने हेतु धन्यवाद, आनन्द, अनुमोदन । ये शुभ प्रयास चालु रखने के लिए विनती । श्रुत-भक्ति में श्रेष्ठ उद्यम कर के स्वाध्याय-शील रहने के लिए अभिनन्दन । - आचार्य कलाप्रभसागरसूरि, हैदराबाद । पुस्तक स्वाध्याय के लिये, आत्मिक विकास के लिए अत्यन्त ही सुन्दर है । पढ़नी प्रारम्भ कर दी है। - मुनि संवेगवर्धनविजय, घाटकोपर, मुंबई (३६२ Mooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)

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