Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 393
________________ 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिली । पूज्यश्री के कोहिनूर हीरे तुल्य रत्न-कर्णिकाओं को शब्दों के डोर में बांध कर एक नवलखा हार जैसी अद्भुत रचना प्रस्तुत करके चतुर्विध संघ पर अत्यन्त उपकार किया है । जीभ बोले, हृदय बोले, ऐसे शब्द अनेक बार मिले हैं, परन्तु अनुभव बोलते हों ऐसे शक्तिशाली शब्द तो कभीकभी ही मिलते हैं । ऐसे शब्द पहुंचाने की कृतज्ञता हृदयपूर्वक व्यक्त करता हूं। 'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक अभी भूपतभाई ने दी है। ऐसी श्रेणि प्रकाशित हो और प्रत्येक शब्द की सुरक्षा हो ऐसी शुभाभिलाषा। - संयमबोधिविजय घाटकोपर, मुंबई 'कहे कलापूर्णसूरि', 'कडं कलापूर्णसूरिए' नामक पुस्तकें प्राप्त हो गई हैं । लेखन अत्यन्त उत्तम है । पुस्तकें अत्यन्त ही उपयोगी हैं। श्रुतज्ञान की आराधना में आपकी अप्रमत्तता अनुमोदनीय है । आपने इस कार्य में अत्यधिक प्रयास किया है। शासन-देव आपको ऐसे कार्यों में बहुत-बहुत शक्ति प्रदान करे। पढ़कर सभी समझ सकें वैसी सरल, तत्त्वदर्शी एवं प्रिय लगने वाली आपकी पुस्तकें हैं । - मुनि हितवर्धनसागर बडा कांड़ागरा (कच्छ) 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिली । आध्यात्मिक वाचनाओं का सुन्दर, सरस संकलन किया है। अध्यात्मयोगी पू. आचार्य भगवंत की प्रत्येक पृष्ठ पर विविध मुद्राओ में उनके दर्शन भी होते हैं । तत्त्वों के खजाने से भरपूर है । सचमुच, आपका सम्पादन प्रशंसनीय है। __ - आचार्य विद्यानन्दसूरि # # आप द्वारा सम्पादित 'कहे कलापूर्णसूरि' नामक पुस्तिका साभार स्वीकार कर ली है । श्रुत भक्ति की भूरि-भूरि अनुमोदना । - आचार्य विजयप्रभाकरसूरि, अहमदाबाद (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwwww ३६१)

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