Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 383
________________ * आगमोद्धारकश्री की वाचना में हमारे पूज्य आचार्य भगवन् श्री पूज्य मेघसूरिजी, पूज्य कनकसूरिजी आदि लाभ ले चुके हैं । * श्रुत का उद्धार मात्र वाचना से नहीं होता, जीवन में आगमों को उतारने से होगा । * 'भगवती सूत्र' पर २०-३० मिनट में मेरे जैसे की बोलने की कहां शक्ति है ? फिर भी आगमों के प्रति भक्ति बोलने के लिए प्रेरित करती है । आगम अर्थात् प्राण ! जीवन ! इसके आधार पर ही अपना भाव-जीवन टिका हुआ है और टिका रहेगा । भगवती अर्थात् द्रव्यानुयोग का खजाना । यद्यपि वैसे तो चारों अनुयोग हैं । यह आकर ग्रन्थ है, जिसकी प्रशंसा स्वयं गणधरों ने की है, मंगलाचरण भी उन्हों ने किया है - नमो सुअस्स । नमो बंभीए लिवीए । यह मंगल कैसे है ? पंच परमेष्ठी तो हैं नहीं । श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानी को छोड़ कर कहीं नहीं रहता, उनका नमस्कार मंगल ही गिना जाता है । सचमुच तो जिनागम एवं जिन एक ही रूप में है । 'जिन प्रतिमा जिन सारखी' ऐसा बोलते हैं, परन्तु क्या जिन प्रतिमा साक्षात् जिन लगती है ? मुझ में भी अभी ऐसा भाव नहीं जगता । मूर्ति ही क्यों ? भगवान का नाम भी भगवान है । मूर्ति भी भगवान हो तो आगम तो भगवान गिने जाते हैं। यदि आगम नहीं होते तो मुक्ति-मार्ग कैसे चलता ? मात्र संकेत (इशारे) से नहीं चलता । भाषा से ही स्पष्ट बोध होता है। इस 'भगवती' में ४१ शतक हैं । जीवनभर चिन्तन-मनन करें तो जीवन के समस्त प्रश्न हल हो जायें । बीस वर्ष पूर्व मानतुंगसूरिजी के पास वाचना ली थी । उससे पूर्व बेड़ा में पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज के पास लेकर व्याख्यान में बोलता था । गोयमा शब्द पर स्वर्ण-मुद्राऐं रखनेवाले श्रावक भी अपने शासन में हो चुके हैं। . हमें समझा-समझा कर आगमों के लिए सौगन्ध (शपथ) दी गई थी। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60 6600 60 ३५१)

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