Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 385
________________ पूज्यश्री : श्रुतज्ञान के प्रत्येक प्रकार के प्रति सम्मान है । ब्राह्मी लिपि में द्रव्यश्रुत है । द्रव्य के बिना भावश्रुत प्रकट नहीं होता । लिपि अक्षर रूप है । न क्षरति इति अक्षरम् । तीर्थंकर आते हैं और जाते हैं, परन्तु अक्षर तो रहते ही हैं । भावश्रुत के जितना ही द्रव्यश्रुत का सम्मान करना है । ज्ञान की मुख्यता हो तब चारित्र एवं ध्यान उसमें ही अनुस्युत समझें । यह ज्ञान 'ज्ञ' एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा रूप समझें । तज्ज्ञानमेव कथं यस्मिन् उदिते रागादयः जायन्ते ? * भचाऊ में भगवती का वांचन चल रहा था, तब एक स्थान पर मैं तनिक चौंक गया, क्योंकि उसमें लिखा था - जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशी है । परन्तु बाद में ध्यान आया कि यह तो अनन्त जीवों की बात है । जीव ही अनन्त हों तो प्रदेश तो अनन्त होंगे ही न ? कल भगवती में आया था - द्रव्यात्मा में सभी जीव आ गये । द्रव्यात्मा के रूप में हम सब एक हैं । हम दूसरों को अलग मानते हैं, परन्तु जीवास्तिकाय कहता हैं - हम सब एक हैं । दूसरे सब (पुद्गलास्तिकाय आदि) जीवास्तिकाय के सेवक हैं। कर्तृत्व आदि शक्तियां जीव के सिवाय और कहां हैं ? जीवास्तिकाय का शब्दार्थ - जीव = जीव अस्ति = प्रदेश काय = समूह यहां विद्वान् अनेक हैं । मैं कुछ न दूं तो वे मेरा कान पकड़ते हैं । जीवास्तिकाय के पांच प्रकार हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण । * द्रव्य से जीवास्तिकाय अनन्त जीव द्रव्य रूप है। उसमें समस्त जीव आ गये । (भले ही कुछ कंटाला आये, परन्तु यह जानने योग्य है ।) क्षेत्र से लोकव्यापी (कहे कलापूर्णसूरि - ३00ooooooooooooooooo ३५३)

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