Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 378
________________ पूज्यश्री : गुण तो बहुत कहते हैं, दोष कहां से सुनने को मिलें ? मैं तो उस समय भादौं शुक्ला-१३ को स्तब्ध हो गया था, मैं प्रशंसा सुनने के लिए थोड़े ही आया था ? _ 'हरि विक्रम चरित्र' में आने वाला यह दृष्टान्त सदा दृष्टि के समक्ष रहता है । संसारी पिता के पास शिष्य से प्रशंसा करा कर वे महान् योगी भी हार गये थे । दूसरों के द्वारा होने वाली स्तुति सुनकर प्रसन्न हो जायें तो भी साधना जाती है । स्तुति सुनकर अप्रसन्न हो, निन्दा सुनकर प्रसन्न हो वह सच्चा योगी है, सुख को दुःख और दुःख को सुख रूप गिने वह सच्चा मुनि है, ऐसा 'योगसार' में लिखा है । सौभाग्य या सुयश नामकर्म का उदय भी सुख है । यदि उस समय प्रसन्न होयें तो काम से गये । ___ आठों मदों से सावधान रहना है । * आप चाहे जितने बड़े विद्वान या गीतार्थ आचार्य बन गये हों तो भी लोगस्स, पुक्खरवर, सिद्धाणं आदि सूत्र ऐसे रखे हैं कि आपको भगवान की स्तुति करनी ही पड़ती है। ___ 'लोगस्स उज्जोअगरे' अर्थात् भगवान लोक को प्रकाशित करने वाले हैं । सूर्य एवं दीपक की तरह केवलज्ञान का भी प्रकाश होता है । वह द्रव्यप्रकाश है, यह भाव-प्रकाश है ।। उद्द्योत करने वाले तीर्थंकर दूर हैं, तो भी क्या हुआ ? सूर्य दूर है, परन्तु किरणें यहीं हैं न ? भगवान दूर हैं, परन्तु भगवान की कृपा तो यहीं है न ? नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः - भक्तामर स्तोत्र भगवान ऐसे सूर्य हैं जो कदापि अस्त नहीं होते, बादलों या राह से वे ग्रस्त नहीं बनते ।। भगवान मोक्ष में गये उसका अर्थ यह नहीं है कि वे अस्त हो गये । भगवान भले मोक्ष में हों, परन्तु उनके गुण तो यहां प्रकाश फैला सकते हैं । सूर्य चाहे आकाश में हो, परन्तु हमें तो प्रकाश से मतलब है न ? प्रकाश तो यहां मिलता ही है । (३४६ 600oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)

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