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पू. भुवनभानुसूरिजी के साथ, सुरत, वि.सं. २०४८
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१९-९-२०००, शनिवार अश्विन कृष्णा-३ : सात चौबीसी धर्मशाला
मुक्ति मार्ग की प्रवृत्ति इस समय चल रही है, जिसमें मुख्य अनुग्रह प्रभु का है, जो तीर्थ है तब तक चलता रहेगा ।
व्यक्तिगत तीर्थ बदल जाते हैं, सामान्य तीर्थ सदा के लिए विद्यमान रहते हैं, शाश्वत हैं ।
व्यक्ति विशेष तीर्थंकर बदलते हैं, सामान्य तीर्थंकर सदा काल के लिए रहते हैं । इसीलिए लोगस्स की प्रथम गाथा में सामान्य तीर्थंकरो की स्तुति की गई है ।
तीर्थंकर भगवान के अनन्तानन्त गुणों का कौन वर्णन कर सकता है ? उनकी स्तुति करने को मिली, यह भी सौभाग्य गिना जाता है । 'अहो मे स्तुवतः स्वामी, स्तुतेर्गोचरमागमत् ।'
- वीतराग स्तोत्र प्रभु की स्तुति का मुझे अत्यन्त लोभ है। जहां से मिले वहां से ले लेता हूं। मैं इस अर्थ में कृपण हूं। उस समय आपने सही कहा था ।
पूज्य आचार्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : उस समय के वचन मैं वापिस लेता हूं ।
[कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000000३४५)