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पू.पं.श्री भद्रंकरवि. म. के साथ, वि.सं. २०३२
१५-९-२०००, शुक्रवार अश्विन कृष्णा-२ : सात चौबीसी धर्मशाला
* भगवान ने मार्ग बताया । चलना तो हमें ही पड़ता है।
भगवान का अनुग्रह स्वीकार करो तो पुरुषार्थ करने का मन होता है। भगवान का अनुग्रह कैसे कार्य करता है ? भोजनपानी हमने ग्रहण कर लिया अतः भूख-प्यास मिट गई यह मान कर हम स्वयं को इतनी प्रधानता दे देते हैं, भोजन-पानी को सर्वथा भूल जाते हैं, 'मैं' रह जाता है; भोजन-आदि छूट जाते हैं । यही भूल यहां करते हैं । 'मैं' रह जाता है, भगवान छूट जाते हैं । भोजन-पानी के बिना दूसरे पदार्थों से भूखप्यास नहीं मिटती, उस प्रकार भगवान के बिना दूसरे से मुक्ति नहीं मिलती।
उपाध्यायजी महाराज के ये शब्द देखें : 'काल स्वभाव ने भवितव्यता, ए सघला तुझ दासो रे; मुख्य हेतु तु मोक्ष नो, ए मुझने सबल विश्वासो रे ।'
- उपा. यशोविजयजी ऐसे आगमधर पुरुष यह कहते हों, व्याकरण, काव्य, न्याय, कोश, आगम, वेद, उपनिषद्, पुराण आदि के प्रकाण्ड ज्ञाता महापुरुष
(३४० 60000000000000000000006 कहे कलापूर्णसूरि - ३)