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जब ऐसा कहते हों, तब क्या बात विचारणीय नहीं लगती ? क्या उनके जितनी बुद्धि और उनके जितना अध्ययन हमारा है ?
भगवान से सब होता है यह सही है, परन्तु पुरुषार्थ तो अपना ही है न ? यह सोच कर भगवान और भगवान की आज्ञा गौण करके हम स्वयं को प्रधान मान लेते हैं, परन्तु तनिक सोचें कि भगवान के बिना दूसरे किसी की ( चक्रवर्ती या वासुदेव आदि की ) आज्ञा पालन की हो तो क्या मोक्ष होता है ? अहंकार नष्ट करना हो तो यह चिन्तन सामने रखना ही पड़ेगा । उसके बिना साधना का मार्ग नहीं खुलेगा । अहंकारयुक्त चित्त कदापि साधना के योग्य नहीं बन सकता ।
* भगवान के जिस गुण को प्रधानता देकर स्तुति करें, वह गुण अपने भीतर आता ही है । यह नियम है । कभी प्रयोग करके देखें ।
'पुरिससीहाणं' विशेषण में भगवान का सत्त्वगुण बताया है । जब हेमचन्द्रसूरिजी पहली बार कुमारपाल को मिले तब कुमारपाल ने उन्हें पूछा था कि उत्कृष्ट गुण कौन सा है ? पूछने वाले को ध्यान में रख कर सूरिजी ने उत्तर दिया 'सत्त्व गुण ।' सत्त्व गुण से ही तीन भाईयों में से कुमारपाल को पसन्द किया गया ।
पहला नम्रतापूर्वक बैठा था, दूसरा गरीब बना बैठा था, जबकि कुमारपाल रोब से बैठा था । इसीलिए उसका चयन किया गया । सत्त्वगुण वीर्याचार के पालन से प्रकट होता है । इसीलिए दूसरे चार आचारों जितने भेद (३६ भेद) वीर्याचार के है । इसका अर्थ यह हुआ कि सबमें वीर्य चाहिये । यदि वीर्य न हो तो एक भी आचार का पालन नहीं हो सकता । देववन्दन-प्रतिक्रमण बैठेबैठे करना, शीघ्र करना, मन चंचल होना आदि दोष आत्म-वीर्य की खामी के कारण उत्पन्न होते हैं । श्रावकों के वीर्याचार के अतिचार देखें । सब समझ में आ जायेगा ।
माता-पिता ने तो भगवान का नाम वर्धमान रखा, परन्तु उनके सत्त्व गुण से ही आकर्षित होकर देवों ने दूसरा नाम 'महावीर'
रखा ।
कहे कलापूर्णसूरि ३ क
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