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के बाद तृप्ति मिलेगी ही । मोक्ष की साधना के पीछे दौड़ें तो मोक्ष मिलेगा ही । कार्य तो कारण रूपी कड़ी में से खिलता हुआ फूल है। कारण को ठीक करें तो कार्य ठीक हो ही जायेगा । साधना करो तो सिद्धि मिल ही जायेगी।
__ जिस भूमिका पर हम हैं, उस भूमिका का (श्रावक अथवा साधु का) अनुष्ठान करते रहें तो सिद्धि मिलेगी ही ।
गणधरों ने भगवान में जब भगवत्ता देखी तब उन्हों ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया । मात्र दो चार घंटे कि दो-चार दिन नहीं । सम्पूर्ण जीवन का समर्पण सबसे बड़ा समर्पण है ।
तीर्थंकरों की बराबरी तो क्या, उनका वर्णन भी कौन कर सकता है ?
कल हमने तीर्थंकरो के दस विशिष्ट गुण देखे वे याद हैं न ? पुनः उन हरिभद्रसूरिजी के शब्द देख लें -
आकालमेते परार्थव्यसनिनः १, उपसर्जनीकृतस्वार्थाः २, उचितक्रियावन्तः ३, अदीनभावाः ४, सफलारम्भिणः ५, अदृढानुशयाः ६, कृतज्ञतापतयः ७, अनुपहतचित्ताः ८, देवगुरुबहुमानिनः ९ तथा गम्भीराशयाः १० ।
ये कोई शब्दो के स्वस्तिक (साथिये) नहीं हैं, वास्तविकता है। ये दस गुण बीज रूप हों तो ही वृक्ष के रूप में कभी बाहर आते हैं ।
स्वार्थ छोड़ कर परार्थ प्रारम्भ होता है तब से धर्म प्रारम्भ होता है। इसीलिए तो 'जयवीयराण' में 'परत्थकरणं च' परार्थकरण की प्रभु से हम सदा याचना करते हैं ।
अनादि काल से जीव स्वार्थ का आदी है, अभ्यस्त है । वाचना में आना हो तो पहले किसके स्थान का विचार करें ? कोशिश तो ऐसी ही है कि मुझे ही अकेले को बैठने को मिले । दूसरे का होना हो वैसा हो । ठेठ निगोद मे भी ऐसी भावना थी कि दूसरे सब मर जायें, मैं ही अकेला जीवित रहूं । इसी भावना से सगे दो भाई भी परस्पर विचार करते हैं कि मुझे ही सब मिल जायें, दूसरा भले ही मर जाये । यदि नहीं मरता हो तो मैं मार डालूं । (३२६ 6
momooooom कहे कलापूर्णसूरि - ३)