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याद आते हैं न ?
'भक्तामर' में गुणों की बात है ही न ?
'भक्तामर' आदि में तो सब-कुछ है, परन्तु कौन सी बात कहां लगानी यही मुख्य बात है। हथौड़ा लगते ही मशीन चालू हो गई यह बराबर है, परन्तु हथौड़ा कहां लगाना यह महत्त्वपूर्ण बात है ।
९९,९९९ रूपये होते हुए भी लाख नहीं कहलाते । इनमें एक रूपया डालो तो ही लाख. कहलायेंगे । एक रूपये का कितना महत्त्व ? फिर भी यह नहीं माने कि एक रूपया ही लाख कहलाता है । ९९,९९९ रूपये थे इसलिए लाख रूपये हुए न ?
उस तरह से पूर्व के यथाप्रवृत्तिकरण निष्फल नहीं गये । वे सब ९९,९९९ रूपयों जैसे हैं । वे नहीं किये होते तो चरम यथा प्रवृत्तिकरण कहां मिलनेवाला था ?
* पार्श्वनाथ संतानीय अनेक श्रावक थे, फिर भी ग्यारह में से एक भी श्रावक गणधर नहीं बना, सभी ब्राह्मण थे ।
पूर्व भव में जो गणधर नाम कर्म बांध आये वही गणधर बन सकता है। तीर्थंकरो की तरह गणधर भी निश्चित होते हैं ।
* पन्द्रह भेदों से सिद्ध भले ही बनें परन्तु मोक्ष में जानेके बाद सब समान हैं । वहां कोई भेद नहीं है । ऐसा नहीं है कि तीर्थंकर भगवानों को अधिक सुख होता है और दूसरों को कम । वहां सभी सिद्धों को समान सुख होता है ।
दुःखी, दरिद्र (निर्धन), सैनिक, वासुदेव या चक्रवर्ती आदि में यहां भेद है, परन्तु मृत्यु में सभी समान है, सबको मरना ही पड़ता है। उसमें कोई अन्तर नहीं है । आयुष्य का क्षय होने पर मरना पड़ता है ।
चन्द्रकान्तभाई और पद्माबेन दोनों एक साथ चल बसे । साथ वाला बालक बच गया । भुज-निवासी एक परिवार के सात व्यक्ति चल बसे, एक बच गया । आयुष्य हो वह बच जाता है। आयुष्य समाप्त हो जाय वह चला जाता है । यह नियम सब पर लागू होता है । मृत्यु में सब समान हैं, उस प्रकार सिद्धशिला में सभी सिद्ध समान हैं । (३३२ ooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)