Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 359
________________ वह कथा सुनी है न ? दो भाई धन कमा कर स्वगांव पुनः लौट रहे थे । मार्ग में दोनों ने एक दूसरे की हत्या करने का विचार किया । एक भाई विष मिली मिठाई लाया । दूसरा भाई सोये हुए की हत्या करके मिठाई खाने के लिए बैठा । दोनों मर गये । यही स्वार्थ-भाव है । दूसरे सब को मार कर मैं अकेला ही उपभोग करूं । यह तीव्रतम स्वार्थ-भाव है । यही सहजमल है। यही वृत्ति हमारा मोक्ष रोकती है, यही सतत कर्म-बंधन कराती है और यही वृत्ति हमें दुःखी करती है। वस्तुतः हमारी ही आत्मा हमें दुःखी करती है । * कृतज्ञता एवं परोपकार ये दो गुण ही मानव-जीवन की शोभा हैं । इनसे ही धरती टिकी हुई है। जब तक उपकार न हो, छोटा-बड़ा भी जब तक दूसरों का काम नहीं करूं, तब तक भोजन नहीं करूंगा । क्या ऐसा नियम हम रख सकते हैं ? परोपकार की भावना ही नहीं, व्यसन चाहिये, रस चाहिये । इसके बिना नहीं चलेगा, ऐसा जीवन चाहिये । (९) देवगुरुबहुमानिनः । तीर्थंकर स्वयं भी अन्य भवों में ऐसे गुणों के लिए बल देव एवं गुरु से प्राप्त करते हैं । नमस्कार से ही परम की शक्ति हममें उतरती है। हमारी समग्र क्रिया नमस्कार से परिपूर्ण है । यदि भावपूर्वक क्रिया की जाये तो परम का अवतरण होगा ही । योगोद्वहन में क्या है ? एक-एक खमासमण नमस्कार-भाव उत्पन्न करने वाला है, परम के अवतरण का कारण है। गुरु बहुमाणो मोक्खो । भगवान शायद विलम्ब कर सकते हैं, परन्तु गुरु पहले मिलते हैं । राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री तो बाद में मिलते हैं, पहले सचिव को मिलना पड़ता है । उसी तरह से भगवान को मिलना हो तो गुरु को मिलना पड़ता है । नयसार के भव में गुरु का बहुमान किया तो क्या मिला ? गुरु स्वयं भगवान बने होंगे कि नहीं, यह मालूम नहीं है, परन्तु नयसार भगवान बन गया । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ woooooooom ३२७)

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