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योगसार में तो कहा है - 'गुणीयल जनो द्वित्रा' - दो तीन ही मिलेंगे । शेष सारी दुनिया व्यर्थ है ।
हमें कौन सा नम्बर लगाना है ? दूसरे के छोटे गुण को भी पर्वत के समान माने । अपने छोटे से दोष को भी पर्वत तुल्य मानें । तो ही आत्म-विकास के पथ पर जा सकेंगे ।
यह होगा तो ही अक्षुद्रता गुण आयेगा । श्रावक का प्रथम गुण अक्षुद्रता है।
बाह्य आचार-विचार भिन्न वस्तु है, भीतर की योग्यता भिन्न वस्तु है । हरिभद्रसूरिजी योग्यता पर बल देते हैं ।
___ अध्यात्म का मुझे अत्यन्त ही शौक था और सत्साहित्य नहीं मिला होता तो मैं भी कहीं टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चढ़ गया होता । खेरागढ़ में मुझे अध्यात्म की ढेर सारी पुस्तकें मिली । उनमें पृष्ठ खोलते ही पढ़ने को मिला कि उपादान तैयार करें । उपादान ही मुख्य है । उपादान तैयार होगा तो निमित्त को आना ही पड़ेगा । मैं ने तुरन्त ही वह बही बन्द कर दी और मैं ने उन्हें कहा, आपके यह साहित्य काम का नहीं है । मैं ने तो पू. देवचन्द्रजी का साहित्य पहले पढ़ा ही था ।
'उपादान आतम सही रे, पुष्टालंबन देव... ।' ऐसा साहित्य मुझे नहीं मिला होता तो? आज मैं कहां होता ?
मालशीभाई : अभी तक हम मूर्ख यही मानते थे कि वाचना साधु-साध्वियों के लिए ही होती है, परन्तु अभी वांचना सुन कर लगा कि हम बहुत चूक गये ।
पूज्य साधु-साध्वीजियों के प्रति मेरी ओर से कोई भी अविनय हुआ हो तो उसके लिए मैं मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं ।
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